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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - २) अभाव वस्तुमे नही है - ऐसा भगवानने कहा है। त्रिलोकनाथ भगवान तीर्थकरदेव सौ इन्द्रोकी उपस्थितिमे ऐसा फ़रमाते थे।
परमात्मा सीमन्धर प्रभु महाविदेह क्षेत्रमे बिराजते है । ऐसे बीस तीर्थकर वर्तमानमे बिराजते हैं। कितने लाख केवली बिराजते है। - यह बात सिद्ध हो चुकी है । यह भगवान फ़रमाते है - त्रणकालके भगवन्त यही फ़रमाते है - वस्तु जो एकरूप द्रव्य, परमस्वरूप, त्रिकाल आनन्दकन्द, ज्ञायक द्रव्य, ऐसा शुद्धात्मा आराधने योग्य है । आराधनेवाली तो पर्याय है। वस्तु अन्तर अनन्तगुणका पिड, एकरूप, ध्रुववस्तु जिसमे बन्ध-मोक्षकी पर्याय नही है, ऐसा आत्मा भीतरमे श्रद्धानके योग्य है, अर्थात् उसकी दृष्टि और अनुभव करने योग्य है । ऐसा अखण्डानन्द द्रव्य चैतन्यमूर्तिपर अन्तरमे टकटकी लगाकर एकाग्रता करनी योग्य है। - ऐसी एकाग्रताका नाम धर्म है, अर्थात् मोक्षमार्ग है।
भाई ! सुन तो सही तेरी रिद्धि !! तू कैसा है ! और कितना है ! सुने बिना कैसे समझे ? और बिना समझे धर्म कहाँसे हो ? (बाजारमें) माल लेनेको जाता है तो भी यही चीज़ लेना है ऐसा निश्चय करता है, वरना काम कैसे होय ? ऐसे यह आत्मा कैसा है ? इसको देखना है. ग्रहना है, समझना है, वरना धर्म कहाँसे होगा ? धर्म करना है, लेकिन होगा कैसे ? इसकी ख़बर नही है । यहाँ तो कहते हैं कि धर्म सीधा आत्मामेसे होता है। शुद्ध वस्तु अखण्डानन्द प्रभु आत्मा, इसकी अन्तर श्रद्धा, ज्ञान और अनुभव करनेपर धर्म आत्मामेंसे आता है; दूसरी ओरसे धर्म आ सके, ऐसा नहीं है।
शुद्ध आत्मा प्रभु जिसको एक समयकी पर्याय - रागकी अवस्था, बन्ध और बन्धके अभावकी - नही है, ऐसी जो ध्रुववस्तु परमात्मा चैतन्यतारा, उसको पहचानकर, दृष्टि-ज्ञान करके, ठरने योग्य है; इसके बिना, वीतराग सर्वज्ञ परमात्माके पंथमें दूसरा कुछ मार्ग नही है। लोग दूसरा मानते हैं, कल्पना करते है। (जैन) सम्प्रदायवालेको पता नही है तो दूसरेको तो पता कहॉसे हो ?