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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - २) देखनेपर बन्ध होता ही नही । इस कारण बन्धके अभावरूप मोक्ष है, यह भी शुद्ध निश्चयनयकर नही है । जो शुद्ध निश्चयसे बन्ध होता तो हमेशा बन्धा ही रहता । कैसी बात है ! ध्रुव रहनेवाली वस्तुको, ध्रुवकी दृष्टिसे देखनेमे आवे और बन्ध इसमे होवे तो बन्ध भी ध्रुव रहे, ऐसा कहते है। बन्धका अभाव कभी न हो सके । वस्तुरूप, नित्यपणे, ध्रुवरूप बन्ध होवे तो बन्धका भी नाश न हो सके । इसके बारेमे समझनेके लिये दृष्टांत कहते है : कोई एक पुरुष सॉकलसे बन्ध रहा है । और कोई एक पुरुष बन्ध रहित है । उनमेसे जो पहले बन्धा था उसको 'मुक्त' ऐसा कहना ठीक मालूम पड़ता है । और दूसरा जो बन्धा ही नही उसको जो 'आप छूट गये' ऐसा कहा जाय तो वह क्रोध-करे कि, मै कब बन्धा था ! सो यह मुझे छूटा कहता है ? बन्धा होवे वह छूटे । इसलिये बन्धेको तो छूटा कहना ठीक है; और बन्धा ही न हो उसे छूटा कैसे कह सकते है ? उसी प्रकार यह जीव शुद्ध निश्चयनयकर बन्धा हुआ नही है । वस्तु जो है, तत्त्व है, है, वह है, सदृश है, एकीला सदृश गुणका सत्त्व है - द्रव्य सो कभी बन्धा हुआ नही है । द्रव्यको बन्धा हुआ कहना और द्रव्यको मुक्त कहना सो ठीक नहीं । बन्ध-मुक्ति, उत्पाद-व्यय पर्याय बिनाका द्रव्य, ऐसा भगवान परमात्मा शुद्ध निश्चयनयसे भूतार्थ है। निश्चयसे यथार्थ है । उसकी दृष्टि करनेसे, उसका अनुभव करनेसे सम्यग्दर्शन होता है। देव-शास्त्र-गुरु तो बाहर रहे, विकल्प भी बाहर रहा और निश्चय-व्यवहारकी पर्याय भी बाहर रह गई।
* दृष्टिको निमित्तपर रखनेसे सम्यग्दर्शन होता है ? - तीन कालमे नही।
* दृष्टिको विकल्प, दया, दान, भक्ति, पूजाके भावपर रखनेसे सम्यग्दर्शन होता है ? - तीन कालमें नही।
* दृष्टिको, क्षयोपशमज्ञान-वीर्यादिकी जो पर्याय प्रगट है उस पर रखनेसे सम्यग्दर्शन होता है ? - तीन कालमे नही ।
बन्ध भी व्यवहारनयकर है । आत्माको विकारमे अटकी हुई रागकी