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श्री सद्गुरुदेवाय नमः 'परिणाम योग्यतानुसार हो जाता है; मै वो परिणाम जितना ही] नही ।' - इसमे किसीको ऐसा लगे कि, क्या परिणाम जड़मे होता है ? अथवा निश्चयाभास-सा लगता है । लेकिन ऐसा कहनेमे तो "अपरिणामीका" ज़ोर बताना है । १.
प्रश्न :- आप शुद्ध पर्यायको दृष्टिकी अपेक्षासे भिन्न कहते है या ज्ञानकी अपेक्षासे ?
उत्तर :- दृष्टिकी अपेक्षासे भिन्न कहते है; ज्ञानकी अपेक्षासे नही । दृष्टि करनेके प्रयोजनमे भिन्नताका ज़ोर दिये विना दृष्टि अभेद नही होती; इसीलिये दृष्टिकी अपेक्षासे ही भिन्न कहते है । और अपनी तो यही 'दृष्टिप्रधान' शैली है, सो ऐसे ही कहते है । २.
निर्विकल्प होते ही अपनेमेसे ही एक ज्ञान उघड़ता है जो दोनो [सामान्य-विशेप] पड़खोको सहज जान लेता है, उसीको प्रमाणज्ञान कहते है । ३.
'परिणाम' और 'त्रिकाल अपरिणामी' - दो मिलकर ही पूर्ण एक वस्तु है, जो प्रमाणका विषय है । वेदान्तादि तो केवल निष्क्रिय...निष्क्रिय कहते है, वे परिणामको ही नही मानते है तो निष्क्रिय भी जैसा है वैसा तो उनकी मान्यतामे भी नही आता । यहाँ तो परिणामको गौण करके निष्क्रिय कहा जाता है । ४.
एक चक्रके अनेक पासे (पहल) है, सभी पासे अलग-अलग डिजाइनके हैं । जब किसी एक पासेकी बात चलती हो तब दूसरे पासेकी बात नही समझनी चाहिए। ऐसे वस्तुके अनेक धर्मोमेसे भिन्न-भिन्न धर्मोकी