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पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचन
७३ पर्याय भी व्यवहारसे है । मुक्ति भी व्यवहारनयसे है । शुद्ध निश्चयनयकर न बन्ध है, न मोक्ष है । अशुद्ध नयकर बन्ध है सो व्यवहारनय हुआ । बन्ध और मोक्षकी व्यवस्था, यह अशुद्धनय है । अशुद्धनय कहो या व्यवहारनय कहो, एक ही बात है। मोक्ष भी सद्भूत उपचरितव्यवहारनयका विषय है । मोक्षकी पर्याय जो है, यह स्वयं व्यवहार है । स्वभावआश्रित मोक्षका मार्ग जो निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है सो पर्याय व्यवहार है । व्यवहार मोक्षमार्ग जो दया-दानका विकल्प सो व्यवहारकी बात यहाँ नहीं है; वे तो बन्धमार्गमे गये । कषायकी मंदताका परिणाम, भक्ति, पूजा, दया, दान, देव-शास्त्र-गुरु प्रतिकी श्रद्धाका भाव, सो राग तो बन्धकी पर्याय है, निश्चयमे तो है ही नहीं। यह बन्धका अभावरूप मोक्षमार्ग सो भी व्यवहार पर्याय है । उत्पाद-व्ययरूप पर्याय है, वह ध्रुव नही है। स्वभावके आश्रित शुद्धोपयोगका परिणमन सो भी व्यवहार है। मोक्ष भी व्यवहार है । एक अपूर्ण पर्याय है, एक पूर्ण पर्याय है - दोनो व्यवहार है। पर्याय स्वयं व्यवहार है । आश्रय लेनेवाली पर्याय व्यवहार है। जिसका आश्रय लेनेमे आता है सो वस्तु निश्चय है । व्यवहारका अर्थ विकल्प और भेद नही; पर्याय अंश है इसलिये व्यवहार है । व्यवहारकी व्याख्या क्या ? ध्रुवमे उत्पाद-व्ययका होना सो व्यवहार है; यही सिद्धान्त है। आगमपद्धतिमे दया, दानके भावको व्यवहार कहते है । अध्यात्मपद्धतिमे तो शुद्ध पर्यायको व्यवहार कहते है । द्रव्य शुद्ध निश्चय है । द्रव्य जो है सो निष्क्रिय है । त्रिकाली ध्रुवके अवलम्बनसे जो निर्मल पर्याय हुई, यह मोक्षका मार्ग सक्रिय है। ध्रुवमे, सक्रियपना - परिणमन कहाँ है ? द्रव्यस्वभाव तो निष्क्रिय है। विकल्प है सो बन्धका परिणमनरूप सक्रिय है । मोक्षका मार्ग होवे सो निर्मल पर्यायरूप परिणाम, सक्रिय अवस्था है । और पूर्ण पर्याय मोक्षरूप सक्रिय अवस्था हुई।
अहो ! वीतरागकथित तत्त्व अलौकिक है ! अहो ! वीतराग द्वारा अनुभव किया हुआ पूर्ण मार्ग ! श्रीमद् राजचन्द्रजीने कहा है न : "अहो ! यह देहकी रचना ! अहो ! यह चेतनका सामर्थ्य ! अहो