________________
पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचन
७१ विसदृशका अर्थ विकार नही - उसका अर्थ उत्पाद-व्ययरूप होना - ऐसा है। यह सव पर्याय अपरमभाव है । मोक्ष, मोक्षका मार्ग ये सब अपरमभाव है, क्षायिकभाव भी अपरमभाव है, परमभाव नहीं है । त्रिकाली ध्रुव सदृश रहे सो परमभाव है । यही ध्रुवपर दृष्टि देना, पर्यायकी ओर न देखना, तो मुक्ति होगी, ऐसा कहनेका अभिप्राय है ।
ध्रुवका आखा कन्द पड़ा है। इसके विना सम्यक्त्व नही होता, ज्ञान नही होता, चारित्र नही होता, मुक्ति नहीं होती । कार्य होता है पर्यायसे । लेकिन यह कारण' जो 'महा भगवान' कैसा है ।। - उसकी श्रद्धा, ज्ञान विना मोक्षमार्ग उत्पन्न नहीं होता।
वीतराग सर्वज्ञदेवकथित तत्त्वको, जीवने जाना नही । 'भगवान आत्मा, सदृश ध्रुव, परमपारिणामिकभाव है' इस दृष्टिसे देखनेमे आवे तो वन्ध और मोक्ष इसमे नही है । मोक्ष भी अपरमभाव है । मोक्षका मार्ग तो अपरमभाव है ही, मगर केवलदर्शन, केवलज्ञान, केवलआनन्द, केवलवीर्य ये भी एक समयकी पर्याय - अपरमभाव है । त्रिकालीभाव परमभाव है।
द्रव्य परिणमन विनाका, उत्पाद-व्यय विनाका है । उसपर दृष्टि देनेकी है। - ऐसा सुनकर शिष्यने प्रश्न किया : शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर आत्मा मोक्षका कर्ता नही है, तो ऐसा समझना चाहिए कि शुद्धनयकर मोक्ष ही नही है और जब मोक्ष ही नही तब यल करना वृथा है ?
इसका उत्तर कहते है : वस्तु जो सत् चिद् त्रिकाल, वह स्वयं वन्ध-मोक्षको नही करती है। परिणत हुई पर्यायमे बन्ध-मोक्ष या मोक्षमार्ग है। शुद्ध निश्चयनयसे वस्तुमे बन्ध-मोक्ष नही है तो शुद्धनयसे मोक्षका पुरुषार्थ भी नही है । मोक्ष है, वह वन्धपूर्वक है। मोक्षकी पर्याय आत्मामे होती है, वह बन्धपूर्वक है । बन्धका उत्पाद होता है, उसका नाश होकर वादमे मोक्ष होता है। और जो बन्ध है, वह शुद्ध निश्चयनयकर होता ही नही । वस्तुस्वरूपसे, शुद्ध निश्चयनयसे बन्ध हो तो बन्ध कभी छूटे नही। शुद्ध निश्चय अर्थात् शुद्ध सत्त्व, वस्तु त्रिकाल एकरूपको (शुद्ध ) नयसे