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पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचन
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सम्यग्दर्शनमें आश्रय किया और जो ( निर्मल ) पर्याय प्रगट हुई, सो पर्याय व्यवहारनयका विषय है । पर्याय है सो व्यवहारनयका विषय है । अन्तरमे पूर्ण एकाग्र होनेपर केवलज्ञान प्रगट हुआ, सिद्ध हुआ, ये सब व्यवहारनयका विषय है । व्यवहार अर्थात् त्रिकाली द्रव्यका एक अंश है । शुद्धदशा भी एक अंश है, त्रिकाली स्वरूप नही । संसार भी पर्याय है, और मोक्ष भी निर्विकारी पूर्ण दशा है । वस्तु तो अनादि - अनन्त ध्रुव है ।
वस्तु जो शुद्ध पारिणामिक स्वभाव है, जो कभी परिणमती नही है, उत्पाद-व्ययमे नहीं आती है । आत्मामे नई अवस्था उत्पन्न होती है, पुरानी अवस्थाका नाश होता है, सो पर्यायका कार्य है । वस्तु ध्रुव है, सो जैसी की तैसी है । अविनश्वर शक्तिमान स्वतत्त्व है, सो शुद्ध पारिणामिक है अर्थात् परम सत्यस्वरूप, एकरूप परमभाव है । विकार-पर्याय एक समयका भाव, अपरमभाव है । उसको, वस्तु जो त्रिकाली है सो शुद्ध परमभावको ग्रहण करनेवाला निश्चयनयसे, नही करती है । भगवान शुद्ध पारिणामिकवस्तु स्वयं न तो बन्धको करती है और न बन्धके अभावको करती है । केवलज्ञान भी एक समयकी दशा है, केवलज्ञान भी त्रिकालीवस्तु नही । त्रिकालीको जाननेपर भी केवलज्ञान एक समयकी दशा है । सिद्ध भी एक समयकी दशा है ।
उत्पाद - व्यय-ध्रुवस्वरूप वस्तु क्या है ? अवस्थामे क्या है ? परमे क्या ? इसको दूसरा कौन-कौनके साथ कैसा सम्बन्ध है ? ये सब जाने बिना, हे जीव ! तू क्या करेगा ? हरितकाय आदिका त्याग करता है, लेकिन त्याग क्या है ? इसकी ख़बर नही, तो त्याग कहाँ से किया ? ऐसे जीवको आत्माका खुदका त्याग दृष्टिमे होता है ।
एक समयकी हालत है, जो दशा, सो दशा संसारकी हो या संसारके अभावकी हो, वस्तुस्वरूप परमपारिणामिक सत्... सत्... सत्... अनादि - अनन्त ऐसा आत्मा, एक नयसे विकारको करता भी नही, विकारको टालता भी नही । बन्ध और मोक्षसे रहित भगवान वस्तुस्वरूप है । ध्रुव... ध्रुव... अखण्डानन्द द्रव्यमे, वर्तमान पर्यायका बन्ध और बन्धका
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