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द्रव्यदृष्टि- प्रकाश (भाग - २)
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दो प्रकार कहा अवस्थामे मलिनभाव सो अशुद्ध निश्चयसे सम्बन्ध कहा और रजकणका सम्बन्ध एकक्षेत्रावगाह होनेसे असद्भूत अनुपचार कहा । दो नयसे बन्ध और मुक्तिको कहा कि असद्भूतसे बन्ध और असद्भूतसे मुक्ति । यद्यपि मुक्ति आत्माके आश्रयपूर्वक है तो भी व्यवहारसे कहनेमे आती है । निश्चय शुद्ध परमात्माको बन्धका होना और बन्धका अभाव, सो द्रव्यमें. वस्तुमे नही; इसको यहाँ शुद्ध कहते है । एक समयकी अवस्थामे बन्ध और बन्धका अभाव है; सो बन्धके अभावकी अपेक्षा भी अशुद्धनिश्चयसे लागू होती है । अशुद्धनिश्चय और व्यवहार एकार्थ है । उसका अंश है इसलिये व्यवहारसे बन्ध और व्यवहारसे मुक्ति है । निश्चयस्वरूप भगवान द्रव्यस्वरूपमे बन्ध और मुक्ति वस्तु नही है । भाई ! वस्तु जो है सो त्रिकालीतत्त्व है, उसमे बन्ध होवे तो वस्तुका अभाव हो जाय और इसकी मुक्तिका अर्थ क्या ? वस्तुमें बन्ध और मुक्ति है नही । यहाँ तो उपचारसे कहकर व्यवहारमे, बन्ध-मुक्ति दोनोको डाला है ।
भाई ! तेरा पदार्थ भगवान जितना बड़ा पदार्थ है ! भगवानका आत्मा और यह आत्मामे वस्तुतासे कुछ फ़र्क नही । इन्होने अवस्थामे पर्यायमे फ़र्क़ किया । पर्याय अर्थात् व्यवहारसे फ़र्क हुआ । बस्तुमे फ़र्क नही है | भगवान आत्मा चैतन्यसूर्य है । चैतन्यका पिड प्रभु आत्मा है । एकीला चैतन्यका प्रकाशका पिड प्रभु आत्मा है । इसका अभान होनेसे, एक समयकी अवस्थामें उत्पन्न किया हुआ विकार-विकल्प, मिथ्यात्वभाव- परलक्षीभाव - जिसके निमित्तसे जड़कर्म बन्धा ये दोनो अशुद्धव्यवहारनयसे है। शुद्धनिश्चयसे वस्तुस्वरूपमे वस्तु है सो है।
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वास्तवमे तो भगवान आत्मा वस्तु है, उसका आश्रय करके पर्याय हुई, सो भी भेदरूप हुई न ? यह व्यवहार हुआ । मोक्षमार्ग भी व्यवहार हुआ । यहाँ निश्चय व्यवहारकी ( जो मोक्षमार्गकी पर्याय होती है, इसकी ) बात नहीं है। यहाॅ तो द्रव्य-पर्यायकी बात है । भगवान आत्मा, वस्तु... वस्तु... वस्तु... अनादि-अनन्त, ध्रुव, अनन्त गुणका पिड, उसका