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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - २) गाथा है !
रागादि भावकर्म अर्थात् पुण्य और पापके जो विकल्प उठते है अर्थात् शुभ-अशुभभाव उठते हैं सो मलिन होनेसे भावकर्म कहनेमे आता है, सो उस पर्यायका भाव है, द्रव्यका नहीं । 'द्रव्य', पर्यायविनाका है । द्रव्यमे पर्याय कहाँ है ? ध्रुव वस्तु है उसमे पर्याय कहाँ थी? द्रव्य तो द्रव्य ही है।
भगवान आत्मा अनादि-अनन्त, अकृत्रिम वस्तु सत् है, अनन्तकालका एक ही सत्त्व है सो वस्तु वेहद ज्ञान-दर्शन-आनन्दसे भरा हुआ, सत्त्वका तत्त्व - ऐसा जो द्रव्य, उसकी वर्तमान एक समयकी अवस्थामें परका सम्बन्ध कहना सो ध्रुवके लिये असद्भूत अर्थात् झूठी नयसे है । और ऐसा अखण्ड पूर्ण द्रव्य होनेपर भी, उसके एक अंशमे पुण्य, पाप, राग, द्वेष; और यह पुण्य और पुण्यके फल ठीक है - ऐसा जो मिथ्यादृष्टिका मिथ्यातभावः सो पर्यायके एक अंशमे है । अंशमे है, इसलिये निश्चय कहा और मलिन होनेसे अशुद्ध कहा । भगवान आत्मा एक सेकन्डके असंख्य भागमे पूरण, ध्रुव, आनन्दकन्द, द्रव्य वस्तु है, उसका राग और विकल्पमे प्रेम करके अनादर किया; हे जीव ! उसमे तेरे जीवनका घात होता है।
परम आनन्दमूर्ति भगवान वस्तु, जिसकी खानमें अनन्त परमात्मा पड़ा है, सिद्धकी समय-समयकी अनन्त अवस्था होती है, ऐसा अनन्त परमात्मा आत्मद्रव्यमें पड़ा है - ऐसा जो आत्मद्रव्य वस्तु, उस वस्तुका वर्तमान पर्यायअंशमें आदर छोड़कर, एक समयके अंशका आदर किया, इसलिये मिथ्यात्व भाव हुआ, और इसलिये जो राग-द्वेष हुआ सो अशुद्धनिश्चयसे हुआ है । शुद्धनिश्चय स्वभावमें वे नही है।।
भगवान ! तेरी बात भगवान कहते है । भगवान सर्वज्ञ प्रभु समवसरण-धर्मसभामें कहते थे । दिव्यध्वनिमें ऐसा आया कि प्रभु ! तू पूर्ण स्वरूप वस्तु है ! इसका तूने आदर नही किया और एक समयकी पर्यायको लक्षमे लेकर, मिथ्याभ्रम और राग-द्वेष उत्पन्न किये है, सो एक