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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - २) वस्तु है । द्रव्य ऐसा जो आत्मा, उसकी अन्तर दृष्टि नहीं करके, अनादिसे बाह्यदृष्टि द्वारा, पूर्ण पदार्थ क्या है - वैसा दृष्टिमें न लेनेपर, वर्तमान अंशको, रागको, विकल्पको, इन्द्रियको लक्षमे लेकर वर्तमान पर्यायमे विकार उत्पन्न करता है । सो कर्मके लिये हुए चतुरगतिमें भ्रमण करता है, वन्धको प्राप्त होता है; कर्मके अभावसे मुक्त होता है; - ऐसे कर्मके सद्भावसे वन्धन और कर्मके अभावसे मुक्ति है। वस्तु आत्मा तो त्रिकाल निर्विकल्पस्वरूप है । - यह सूक्ष्म बात है। आत्मतत्त्व अर्थात् भगवान सर्वज्ञ तीर्थकरदेवने कहा ऐसा आत्मा, एक सेकन्ड भी अनन्तकालमे, दृष्टिमे लिया नहीं । और सव विपरीत कर-कर परेशान हुआ, -ऐसा भगवान सर्वज्ञ कहते है।
भगवान सर्वज्ञ समवसरणमे विराजते है तब इन्द्रादिकी उपस्थितिमे चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, आदिको ऐसा कहते है । महाविदेह क्षेत्रमे वर्तमानमे भगवान सीमन्धर परमात्मा मनुष्यदेह सहित विराजते है सो भगवान ऐसा फ़रमाते है : भो आत्मा ! चार गतिका बन्धन और यह बन्धनका अभाव - ये दोनों वस्तुके स्वरूपमे नही है । वर्तमान पर्याय नयी उत्पन्न होती है और व्यय होती है।
भावार्थ :- अनादिकालसे कर्म और आत्माका सम्बन्ध है । कर्म रजकण वस्तु है, सूक्ष्म धूलि जड़ है। आत्मा अरूपी चैतन्य आनन्दकन्द है । उसकी समीपमे ( एक क्षेत्रावगाह ) आठ कर्म-ज्ञानावरणादि-सूक्ष्म धूलिरूप है; - उसका सम्बन्ध अयथार्थस्वरूप अर्थात् झूठी नयसे - अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे है।
ये अन्तरकी बातें जीवने सुनी नही । अनन्तबार नवमी ग्रैवेयक गया, लेकिन वास्तविक तत्त्व-चैतन्यभगवानका सम्यकज्ञान जीवने एक सेकन्डमात्र भी किया नही, ऐसा सर्वज्ञ परमात्मा कहते हैं । बिना आत्मज्ञान सब किया, क्रियाकांड, दया, दान, व्रत, भक्ति, तप आदि बहुत शुभभाव हुआ, स्वर्गमे भी गया, लेकिन उससे जन्म-मरणका अन्त आया नहीं। धूलिका देव हुआ, धूलिका राजा हुआ, धूलिका ( पैसावाला) सेठ हुआ,