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पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचन सत्य दृष्टिसे देखा जाय तो वस्तु भगवान आत्मा, सत्, शाश्वत, ध्रुवपदार्थ है, जिसमे बेहद ज्ञान-दर्शन-आनन्द ऐसी शक्तियोंका सत्त्वरूप आत्मतत्त्व है । सो वस्तुतत्त्व परको ग्रहे या छोड़े सो वस्तुमे नही ।।
वस्तु, खुद शाश्वत आनन्द, अनादि-अनन्त, ध्रुव, चैतन्यकी मूर्ति, अनन्तगुणका सामान्य ध्रुव एकरूप-ऐसा निश्चय आत्मा, ऐसा सत भगवान परको ग्रहे या छोड़े, सो वस्तुके स्वरूपमें नही है। भगवान क्या कहते है ? सो जीवने कभी वास्तविक तत्त्वको सुना ही नही । परमात्मा तीर्थकर जिनवर देवने ऐसा कहा है - अनन्तकालसे यह वस्तु जो है खुद पदार्थ, स्वयं अनन्त आनन्दरूप है । नव तत्त्वमे आत्मा है सो ध्रुव, ज्ञायक, आनन्दकन्द, सत् चिदानन्द, शुद्धस्वरूप जैसा पर्यायमे भगवानका है, ऐसा यह आत्मवस्तुका स्वरूप है । सो वस्तु खुद परको बन्धन करे या छोड़े सो वस्तुके स्वरूपमे नही। ___सो वस्तु अखण्ड, आनन्द, ज्ञायकमूर्ति, सत्चिद्, अनादि-अनन्त, अकृत्रिम सत्त्व, आत्मवस्तु खुद एक समयकी अवस्थामे नही आती । पर्याय जो है उसमे - अवस्थामे - हालतमे, वस्तुकी अन्तरसन्मुखकी दृष्टि बिना, परसन्मुखकी दृष्टिसे, एक अंशके लक्षसे, उत्पन्न हुआ मिथ्यात्वभाव और राग-द्वेषभाव उसको कर्म कहनेमे आता है, यह भावकर्म है । और उसके निमित्तसे बन्ध हुआ रजकप-जड़-ज्ञानावरणादि आठ कर्म, ये जड़ कर्म है । वे भावकर्म है और ये जड़कर्म है । वस्तु खुद परमस्वरूप, परमात्मा स्वयं है । यह परमात्म प्रकाश है ! यह बात अब की है भैया ! यदि तू परमात्मा पूर्ण न हो तो पर्यायमे परमात्मा कहाँसे होगा ? छोटी पीपर के प्रत्येक दानेमे पूर्ण चरपराई भरी न हो तो घिसनेएर बाहर आवेगी कहॉसे ? क्या चरपराई बाहरसे आती है ? भीतरमें शक्तिरूप पड़ी है सो प्रगट होती है । ऐसे भगवान आत्मा, अरिहन्त और सिद्धकी अवस्थारूप, पर्यायरूप, केवलज्ञान, केवलदर्शन, पूर्ण आनन्दरूप 'परमात्मा' पर्यायमे होता है, सो पर्याय कहाँसे होती है ? क्या बाहरसे आती है ? आप खुद परमात्मा अनन्तगुणकी खान-निधान