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पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचन लेकिन भगवान आत्माकी श्रद्धा व ज्ञान जीवने अनन्तकालमे किया नही । ऐसा जो भगवान आत्मा उसको अनादिसे अयथार्थस्वरूप अर्थात् झूठी, अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयसे आठ कर्मका सम्बन्ध है। -इस प्रकारकी बात ही अभी तो चलती नही । धर्मके नामपर हा-हो और धमाल होती है। कितने लोग तो व्यापार-धंधेमेसे निवृत्ति नही पाते है और कितने धर्मके नामपर बाह्य क्रियाकांडमे सन्तुष्ट है । वस्तु क्या है ? आत्माका स्वरूप क्या है ? उसका कैसा कैसा सम्बन्ध है ? कौन सम्बन्धसे परिभ्रमण' है ? - कुछ पता नही।
यहाँ तो कहते है कि भगवान आत्माका अन्तरस्वरूप बेहद ज्ञान और आनन्दका कन्द है । उसको अनादिसे जड़ कर्मका सम्बन्ध झूठी नयसे है; वास्तविक सम्बन्ध नही होनेसे झूठी नयसे सम्बन्ध कहा । समीप है इसलिये सम्बन्ध; निमित्त है इसलिये व्यवहार कहा । जड़कर्मका बन्ध अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयसे अर्थात् झूठी नयसे है, ऐसा कहनेमे आता है । यह चैतन्य और वे जड़ - दोनोका सम्बन्ध झूठी नयसे है तो कुटुम्ब-परिवारका आत्मासे सम्बन्ध है ही नही।
दूसरी बातः- भगवान-वस्तु, परमात्मस्वरूप, स्वयं द्रव्यस्वरूप, अखण्ड, ज्ञायकभाव-तत्त्व, उसको पुण्य-पाप-दया-दान-काम-भोगादिके भाव है, सो अशुद्ध निश्चयनयसे है अर्थात् वर्तमानअंशमे है । रजकण दूर है; उसकी जातिमे और अंशमे नही है - वस्तु जो ध्रुव त्रिकाल है, उसमे तो कर्म नही है लेकिन एक समयकी अवस्थामे भी कर्म नही है । वस्तु जो है अखण्ड, आनन्द, ज्ञायकमूर्ति, चिदानन्द, परमात्मा खुद, ऐसा जो भगवान आत्माको वर्तमानअवस्थामें सम्बन्ध है । कर्म तो दशामें नही थे इसलिये झूठी नयसे सम्बन्ध कहा था । यहाँ तो वर्तमानदशामे सम्बन्ध है, इसलिये दशामे निश्चय है लेकिन अशुद्ध है। पुण्य, पाप, काम, क्रोध, दया, दानादिके विकल्प जो उठते है सो विकार है, राग है, सो एक अंशमे है - इसतिये निश्चय कहा और अशुद्ध होनेसे अशुद्धनिश्चयसे सम्बन्ध है - ऐसा कहा । यह तो 'परमात्म प्रकाश' है ! बहुत अलौकिक