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पूज्य गुरुदेव श्रीके प्रवचन
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समयकी पर्यायमे, तेरी पर्यायके अस्तित्वमे उत्पन्न हुआ विकार है । यह विकार और तेरा सम्बन्ध अशुद्धनिश्चयसे है । भाई तू कौन है ? और तेरी भूल कितनी ? कितने समयकी ? इसका विचार तूने कभी किया नही ।
यहाँ कहते है कि भगवान ! वास्तवमे तेरा स्वरूप अशुद्धनिश्चयसे उत्पन्न हुये विकार और कर्मके सम्बन्ध विनाका - त्रिकाली पूर्ण वस्तुरूप है । एक समयमे भगवान पूर्णानन्द वस्तु है; और अशुद्धता है सो आत्माकी अवस्थामे है । उसको त्रिकालीके साथ अशुद्धनिश्चयसे सम्बन्ध कहनेमे आता है।
संयोग सव कहाँ रहा ? उसके साथ सम्बन्ध कैसा ? स्त्री, दुकान, ज़ेवर, मकान, आदिके साथका सम्बन्ध असद्भूत-झूठी नयसे-व्यवहारसे, निमित्तरूप होनेसे उपचारसे है - दूर है इसलिये । कर्मके रजकण नजदीक है, एक क्षेत्रावगाह है, इसलिये उसको अनुपचार कहा; फिर भी असद्भूत है क्योकि जीवकी पर्यायमे नही है, भिन्न है । वे एक क्षेत्रमे भिन्न है; और संयोग भिन्न क्षेत्रमे भिन्न है; इसलिये असदुद्भूतनयसे उपचार है । वास्तवमे इसके साथ सम्वन्ध नही है। शरीरको आत्मा थोड़े ही रख सकता है ? शरीरकी अवस्था, राग और विकल्पके आधीन त्रिकालमे नही है, ऐसा भगवान कहते है । अजीवतत्त्वकी अवस्थाको जीव यदि करे तो अजीवकी स्वतन्त्रता नही रहती । भगवान कारणतत्त्वमे, यह धूलि नहीं है भिन्न तत्त्व है । एक समयकी अवस्थामे मलिन पुण्य-पापके भाव सो अशुद्ध अंश है । वह अंशसे बन्ध हुआ । कर्मसे बन्ध और कर्म छूटनेसे मुक्ति होती है। पर्याय बन्ध-मुक्ति है, वस्तुमे बन्ध-मुक्ति नही । वीतराग सर्वज्ञकथित तत्त्व सन्तोने आसान कर दिया है ।
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जड़कर्मसे मुक्ति भी असद्भूतव्यवहारसे है । यह असद्भूत सम्बन्ध था और पुण्य-पापके भावका सम्बन्ध भी असद्भूतनिश्चयसे था - ये दोनो छूट गया । यह सूक्ष्म बात है । वीतरागकथित तत्त्व बहुत गूढ़ है ।
भगवान आत्मा वस्तु, अनादि-अनन्त ध्रुवतत्त्व, उसकी पर्यायमे ऐसा