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श्री परमात्मने नमः श्री परमात्मप्रकाश-गाथा ४३ पर पू. गुरुदेवश्रीका प्रवचन
(आसो वद १० बुधवार, दिनाक २०-१०-६५) यद्यपि पर्यायार्थिकनयसे, भगवान आत्मा - कारण शुद्ध ध्रुव प्रभुको - अवस्थाका उत्पाद - व्यय होना अर्थात् पूर्व अवस्थाका अभाव सो व्यय
और नई अवस्थाका होना सो उत्पाद है; तो भी पर्यायका परिणमन द्रव्यमें नही है । परसे तो भिन्न ही है लेकिन पर्याय भी (ध्रुव) वस्तुमें नही है। वस्तुमे कर्म नहीं है, शरीर नहीं है, पुण्य-पापका भाव नहीं है, उत्पादव्ययरूप पर्याय वस्तुमे नही है।
सुर्वणके ज़ेवरमे, सुवर्णमेसे कड़ाकी अवस्था हुई, पीछे कुण्डलादि हुआ इसमे सुवर्ण उत्पाद-व्ययसे रहित है। - ऐसे आत्मद्रव्यमें परिणमन नही है, सो कहते है:
आत्मा एकीला ( अकेला ) ध्रुव पिण्ड है, उसमे राग, विकल्प, उत्पाद, व्यय नही है । इसलिये राग, विकल्प, पर्यायपरका लक्ष छोड़ दे ! वस्तु, उत्पाद-व्यय परिणमन बिना की है। पर्यायार्थिकनयसे उत्पाद-व्यय सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयसे उत्पाद-व्यय रहित है । वस्तु अनादि-अनन्त है, है और है । उसमे अवस्थाका होना और नाश होना, सो अंतरमे नही है - ध्रुवमे नही है । यह किसके घरकी बात है ? यह द्रव्य है, चिद्घन है । आत्मा एकीला चिद्घन है, ध्रुव है, ध्रुव है, प्रत्यक्ष है, नित्य है, एकरूप है, जिसको भाव-अभाव नहीं । भाव अर्थात् पर्यायका उत्पन्न होना और अभाव अर्थात् पर्यायका अभाव होना, सो वस्तुके भीतरमे नही है।
देखो, वस्तुके स्वभावकी अचित्यता, अपरिमितता, बेहदता ! स्वभावका सामर्थ्य पूर्ण ध्रुव है। ध्रुववस्तुमें पर्यायका उत्पादव्ययरूप परिणमन नही है । द्रव्य सदा ध्रुव...ध्रुव...ध्रुव, वस्तु...वस्तु...वस्तु सदा