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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश ( भाग - १ ) 'थवानुं हशे तेम थशे' इस आशयको कहनेका वह यथार्थ अधिकारी नही है। उसके अभिप्रायमे फेरफारकी बुद्धि तो पड़ी रहती है। उसकी स्वतन्त्र योग्यता निरन्तर परावलम्बी वर्तती है व उसे उसमें उत्साह बढ़ता रहता है। यह बात स्वद्रव्य - अवलम्बन करनेवाला ज्ञानी यथार्थ जानता है।
४. ( मिथ्यादृष्टि ) संसारी जीव स्वरुचि अनुसार अपनी रसपूर्तिके हेतु अमुक परको जानता है; अतः इष्ट प्राप्तिमे बाधक कारणोंसे द्वेष करता है । इसका कारण मात्र परावलम्बी रुचि ही है, अन्य नही ।
हम सब नित्य स्वका संगरूप वर्तन करें, यह ही भावना है। - निहालचन्द्र
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ॐ
श्री सद्गुरुदेवाय नमः
कलकत्ता
२-१-१९६४
आत्मार्थी . शुद्धात्म सत्कार ।
आपका ता. १८-१२-६३ का पत्र यथासमय मिला था। मै यहाँ १७-१२ को वापस पहुँचा था । मार्गमे अधिक रुकनेसे दिल्ली नही ठहर सका था ।
नित्य शुद्धात्मस्वभावमें दृष्टि अभेदकर, तादात्म्यकर, निर्विकल्पकर, सहज अहम्पनेसे स्वमूर्तिकी स्थापना करो ! देह, मन, वाणी, राग व क्षायिक-क्षणिक भावसे भी पार, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म सामान्य द्रव्यमयी गठरीरूप होकर जमे रहो ! इस नित्यबलकी अधिकायीसे क्षणिक परिणाममे खिसको नही ! ज्ञान रागसे सहज पृथक् होकर, क्षणे-क्षणे वृद्धिगत होते-होते पूर्ण उघड़ जायेगा । - ऐसे पूज्य गुरुदेव श्रीके आशयको यथार्थ परिणमित कर देना हम सर्व मुमुक्षुओंका सदा सुखानुभवी कर्तव्य है ।
महाआनन्दका नित्य भोगवटा रहे, यही भावना है।
मोक्षेच्छु निहालचन्द्र