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नित्य शुद्ध सुख-सागरके रस-प्रति वृत्ति द्वारा आस्वादन करते रहना ही हर आत्माके लिये परम कार्य है; अन्य सर्व अकार्य हैं । जैसे भी होवे परसन्मुख रस शिथिल (क्षय) करो ! स्वसन्मुख आनन्दमे निरन्तर लीनता यह स्थिति पूर्णपणे प्रगट कर देगी । निकट आत्मार्थीको इस हेतु बिना अन्य लक्ष्य किचित् भी नही होता; वरना संसार-प्रतिके दुःखोसे किचित् भी हटना नही हो सकता ।
- पू. श्री सोगानीजी