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आध्यात्मिक पत्र मुद्रा देखकर चित्त डोल उठा । आपने फ़रमाया है :
"अमारो के.(केवल) ज्ञाननो ध्वज फरकी रह्यो छे । केवल ज्ञाननो झण्डो फरकावता-फरकावता अल्प काले मोक्षमां जहूं।" - इन वचनोको वारम्बार रस लेकर भी वृत्ति तृप्त नही हुई। ___अधिक क्या लिखू ? पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि "ज्ञानीने रागादि भावो पोताना स्वभावपणे ज़रा पण भासता नथी, स्वरूपनी वाहर ज भासे छे"यही वेदन हम सबको दृढ़तर होता जावे, यह ही भावना ।।
धर्मस्नेही निहालचन्द्र सोगानी
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कलकत्ता
२३-१२-१९६३ आत्मोन्मुखी शुद्धात्म सत्कार ।
यहाँ पहुँचने पर आपका आया हुआ पत्र देखा । भगवान श्री जयसेन आचार्यकी गाथा ३३८-३९की टीकामेसे 'अपरिणामी' सम्बन्धित लाईने आपने उद्धृत कर लिखी, उन्हे बांचकर बहुत ही प्रमोद हुआ।
सांख्यानुसारी शिष्य, अभिप्रायमे निश्चय-व्यवहारमयी आखे प्रमाणरूप अनेकान्तस्वरूप द्रव्यको एकान्ते अपरिणामी समझकर, जैनागममें भी शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे जीवको अपरिणामी कहा गया है, ऐसा कहता है - जिसका समाधान आचार्यदेवने किया है : "परन्तु व्यवहारनयसे परिणामी है," "शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे अपरिणामी है" । इस चातको रखकर, व्यवहारअंग नही समझनेवाले शिष्यको 'परन्तु' शब्द मूककर परिणमनरूप व्यवहार भी बताया है।
'निष्क्रिय भाव व शब्द के लिये आपने आचार्यश्रीकी गाथा-३२० की टीका वहाँ बताई थी व पूज्य गुरुदेवश्रीके मुखारविन्दसे सोनगढ़में भी रात्रि चर्चा समय इसका स्पष्टीकरण हुआ था।
इस प्रकार निष्क्रिय व अपरिणामी, त्रिकाली-सदृश्य परम शुद्धनयका