________________
५०
द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) यही भावना है कि परम उपकारी श्री गुरुदेवकी छत्रछायामें हम सब मुमुक्षु अपने नित्य स्वक्षेत्रमें अडिग जमे रहें। जिस (स्वधाम)की अपेक्षा परिणाम मात्र केवलज्ञानादि परतत्त्व हैं । ऐसा होते ही नित्य व क्षणिक दोनों भावोंका अनुभव प्रतिसमय एक ही काल होता रहेगा, जो कि गुरुदेवका अभिप्राय है।
"करता करम क्रिया भेद नही भासतु है, अकर्तृत्व सकति अखण्ड रीति धरै है। याहीके गवेषी होय ज्ञानमाहि लखि लीजै, याहीकी लखनि या अनन्त सुख भरै है ।।"
धर्मस्नेही निहालचन्द्र
[४७]
कलकत्ता १७-१०-१९६३
चैतन्यमूर्ति श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी शुद्धात्म सत्कार ।
पत्र आपके समय-समय पर तीन मिले । अब मेरा शारीरिक स्वास्थ्य ठीक है। करीब १ माह पलंग पर रहना हुआ। चिन्ता अथवा राग तो स्वयंको हानिकारक है। स्वमें अथवा परमें अकार्यकारी है। अतः हर समय स्वभाव-बलसे सहज निषेधपूर्वक होवे तो(भी विकल्पका) फल आदरणीय नहीं हो सकता।...
इन दिनो साधर्मी भाईयोका पत्र व्यवहार कुछ बढ़ा है। परन्तु सहज विकल्प निमित्ते जवाब लिखीज जावे वह ही अच्छा है। अतः जवाब देरी आदिकी प्रतीक्षा अधिक नही रखना ही अच्छा है।
आशा है परम उपकारी श्री सद्गुरुदेव सुख-शान्तिमे विराजते होगे। इस माहके गुजराती 'आत्मधर्म में अनुभव रसकी भागी हुई वाणी व प्रसन्न