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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग -१) एकाकार व्यापक करते ही नित्यपनेका, निज अस्तित्वपनेका प्रति समय अनुभव होता है। _ 'अपरिणामी, नित्य, त्रिकाली, ध्रुव बिम्ब मैं हूँ', क्षणिक परिणाम नहीं - यह श्रद्धाका विषय है। श्रद्धा एक ही समयमें पूर्ण त्रिकालीको पकड़कर अभेद हो जाती है । यहाँ अस्तित्वकी स्थापना होते ही 'मैं' परिणामके साथ नहीं परिणमता । परिणामका कर्ता परिणाम ही है, 'मैं' तो अपरिणामी वर्तमानमें ही परिपूर्ण हूँ। वर्तमानसे ही मुझे कुछ करना-कराना नहीं है। रटन, पुरुषार्थ, ज्ञान आदि सब परिणाम है । इनसे मुझे लाभ-हानि नही । मेरी अपेक्षासे यह स्वयं होते है ।'मैं' अविचल हूँ। इन परिणामोसे विचलित नही होता । इनसे पृथक् व अधिक हूँ। अपेक्षासे मेरे गर्भ में होते हैं। पर 'मैं' इनमे एकमेक नही होता । दर्पणका त्रिकाली दल, एक समयकी दर्पणाकार पर्यायसे भिन्न ही रहता है । दोनो कार्य एक समयमे है। यदि दल एक समयके आकार-पर्यायमें आ जाये तो त्रिकालीपनेका नाश हो जाता है । अतः त्रिकाली ध्रुव नित्य वस्तुमे - अपने अस्तित्वपनेमे श्रद्धाकी व्यापकता करते ही सब कार्य सहज स्वभावरूप अनुभव होने लगता है। वर्तमानसे ही मुझे कुछ नही करना है, ऐसे 'मैं-पने'की यथार्थ अभेद प्रतीति होते ही चारित्र-पुरुषार्थ आदिके सब परिणाम सहज ही 'मैं त्रिकाली'का अनुसरण करने लगते है व शुद्ध होने लगते हैं। परिणामोमे उलट-फेर करनेकी दृष्टि असम्यक् है । इस क्रियासे जब ही हट सकते है कि इनसे भिन्न अपरिणामी वस्तुमे - निश्चलरूप वस्तुमें निश्चल रहें। निश्चय स्व-सत्का संग होना ही पूज्य सद्गुरुदेवके संगका फल होना चाहिए। वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ तो वर्तमानसे ही किसीसे भी लाभ व नुकसान नहीं है।
धर्मस्नेही निहालचन्द्र