________________
आध्यात्मिक पत्र कोई भी लाभ नही होता है। - यह सिद्धान्त लक्ष्यमे रखकर, निज निकाली अपने स्थित स्वभावमे ही परिणति स्थित होती जावे, ऐसी अनुभूति प्राप्त होना श्रेयस्कर है । अभी जल्दीमे पत्र बन्द करना पड़ रहा है।
आपके वात्सल्ययुक्त अनुराग भरे पत्रको देखकर कुछ धार्मिक विषयपर भी लिखता, परन्तु आज जानेके पहले भी जल्दी है । अतः फिर कभी लिखना हो सकेगा।
धर्मस्नेही निहालचन्द्र
कलकत्ता
२०-४-१९६३
श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी शुद्धात्म सन्कार ।
पत्र ता. १७-४ का आपका मिला । अलौकिक पूज्य गुरुदेवके दर्शनार्थ आप जोरावरनगर, दहेंगॉव आदि जा रहे है, जानकर चित्त प्रसन्न हुआ । दहेगॉवके श्री भीखाभाई मुझे मिले । वहाँ पहुँचने वास्ते उनका आग्रह भी था । पुण्ययोगसे ही श्री गुरुदेवके सानिध्यमे रहना होता है।
"निःशंक निर्णयके लिये किस प्रकार रटन, पुरुषार्थ आदि होना चाहिए" लिखा, सो अपने अस्तित्वकी यथार्थ समझमे सब ही बाते गर्भित है। प्रमाणज्ञानका विषय नित्य व अनित्य अथवा त्रिकाली ध्रुव व क्षणिक परिणामी वस्तु एक ही साथ 'मैं' हूँ। दोनो प्रकारका अनुभव एक ही समय होनेपर निःशंकता हो जाती है । संसारी (अज्ञानी) जीवको कर्तृत्व-भोक्तृत्वरूप मात्र परिणामके वेदनकी प्रसिद्धि है, उस ही समय त्रिकालीरूप स्व अस्तित्वकी नही।
परिणाममेसे अस्तित्वपनेकी श्रद्धा हटाकर, त्रिकाली ज्ञानानन्द आदि अनन्त गुणोके देहाकार असंख्यात प्रदेशी निजपनेमे श्रद्धाकी पर्यायको