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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) आपका लिखना कि "सांसारिक विकल्प पण थाय छे, अने कार्य पण थाय छ, निवृत्ति इच्छनारने मात्र सोनगढ़मां ही वास होय " आदि - इसका क्या अपेक्षित जवाब देऊँ ? यहाँ तो पूज्य गुरुदेवने आत्मगढ़मे वास कराकर प्रसाद चखाया है, अतः क्षणिक विकल्प भी सहज विस्मरण होते रहते हैं। कहता हूँ कि : हे विकल्पांश ! तेरे संग अनादिसे दुःख अनुभव करता आया हूँ, अब तो पीछा छोड़ । यदि कुछ काल रहना ही चाहता है तो सर्वस्व देनेवाले परम उपकरी श्री गुरुदेवकी भक्ति-सेवा-गुणानुवादमे ही उनके निकट ही वर्त ! इस क्षेत्रमे तो अधिक दुःखदायी है। चूंकि गुरुदेवने इसकी उपेक्षा कराकर इससे विमुख करवा दिया, अतः यह भी लम्बाकर साथ नही देता।
___ "जैसो शिवखेत बसै, तैसो ब्रह्म यहाँ बसै,
यहाँ-वहाँ फेर नाही, देखिये विचारके "| मेरे प्रति आपका अनुराग ज्ञानमे है । पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि तुम स्वयं अक्रिय चैतन्य ढीम हो, इस अगाध सागरका सहज अनुराग करो। पराश्रित अनुराग तो एकांते दुःख है । सुखाभासी होकर इसके रसको लम्बाना उचित नही । अपने तो एकान्त सहज ज्ञान-सुखसे लबालब व ठसाठस चैतन्य ढीम बनकर जमे रहो । विकल्प व निर्विकल्प जैसी भी अवस्था होवे, होने दो।
“करता करम क्रिया भेद नही भासतु है, अकर्तृत्व सकति अखण्ड रीति धरै है, । याहीके गवेषी होय ज्ञानमाहि लखि लीजै,
याहीकी लखनि या अनन्त सुख भरै है" || वहाँ ठहरने-ठहरानेके विकल्पजालको लम्बानेसे क्या लाभ ? विकल्यानुसार क्रिया होना आवश्यक तो नही । जैसा योग है, हो जायेगा। चिन्ता तो, ओछी ही अच्छी है । निकट भविष्यमे वहाँ आनेका विचार अवश्य है। परन्तु सदैवकी टेव अनुसार प्रोग्राम अकस्मात ही बनता है अतः समय लिखनेके अयोग्य हूँ।
विकल्परसमे अनुभवरसका अभाव है। एक की ओर झुककर लम्बानेसे