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________________ ४७ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) आपका लिखना कि "सांसारिक विकल्प पण थाय छे, अने कार्य पण थाय छ, निवृत्ति इच्छनारने मात्र सोनगढ़मां ही वास होय " आदि - इसका क्या अपेक्षित जवाब देऊँ ? यहाँ तो पूज्य गुरुदेवने आत्मगढ़मे वास कराकर प्रसाद चखाया है, अतः क्षणिक विकल्प भी सहज विस्मरण होते रहते हैं। कहता हूँ कि : हे विकल्पांश ! तेरे संग अनादिसे दुःख अनुभव करता आया हूँ, अब तो पीछा छोड़ । यदि कुछ काल रहना ही चाहता है तो सर्वस्व देनेवाले परम उपकरी श्री गुरुदेवकी भक्ति-सेवा-गुणानुवादमे ही उनके निकट ही वर्त ! इस क्षेत्रमे तो अधिक दुःखदायी है। चूंकि गुरुदेवने इसकी उपेक्षा कराकर इससे विमुख करवा दिया, अतः यह भी लम्बाकर साथ नही देता। ___ "जैसो शिवखेत बसै, तैसो ब्रह्म यहाँ बसै, यहाँ-वहाँ फेर नाही, देखिये विचारके "| मेरे प्रति आपका अनुराग ज्ञानमे है । पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि तुम स्वयं अक्रिय चैतन्य ढीम हो, इस अगाध सागरका सहज अनुराग करो। पराश्रित अनुराग तो एकांते दुःख है । सुखाभासी होकर इसके रसको लम्बाना उचित नही । अपने तो एकान्त सहज ज्ञान-सुखसे लबालब व ठसाठस चैतन्य ढीम बनकर जमे रहो । विकल्प व निर्विकल्प जैसी भी अवस्था होवे, होने दो। “करता करम क्रिया भेद नही भासतु है, अकर्तृत्व सकति अखण्ड रीति धरै है, । याहीके गवेषी होय ज्ञानमाहि लखि लीजै, याहीकी लखनि या अनन्त सुख भरै है" || वहाँ ठहरने-ठहरानेके विकल्पजालको लम्बानेसे क्या लाभ ? विकल्यानुसार क्रिया होना आवश्यक तो नही । जैसा योग है, हो जायेगा। चिन्ता तो, ओछी ही अच्छी है । निकट भविष्यमे वहाँ आनेका विचार अवश्य है। परन्तु सदैवकी टेव अनुसार प्रोग्राम अकस्मात ही बनता है अतः समय लिखनेके अयोग्य हूँ। विकल्परसमे अनुभवरसका अभाव है। एक की ओर झुककर लम्बानेसे
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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