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________________ ४७ आध्यात्मिक पत्र दूसरेका अभाव होता है। "गुण अनन्तके रस सबै, अनुभौ रसके माहि । यातै अनुभौ सारिखो, और दूसरो नाहि "|| विशेष मिलने पर। - असगताका इच्छुक कलकत्ता १०-९-१९६३ श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी ____ आपका कई दिनों पहले पत्र आया था । श्री ‘पञ्चाध्यायी'की दर्शन-ज्ञान विषयकी गाथाओका जिक्र था । पुस्तकका यहाँ सहज योग नहीं हो सका । सोनगढ़मे अपेक्षावत् इस विषयकी समाधान चर्चा हुई है, ऐसा स्मृतिमे है। आपको वहॉसे समाधान हो सकेगा, जानने पर खुलासा लिखे । चैतन्यप्रतिमा व चेतनपरिणतिके स्वतन्त्र-स्वतन्त्र अस्तित्वकी यथार्थ कबूलात कर चैतन्यप्रतिमामें अपना स्थापन करते ही परिणति प्रतिमाका आलिगन करने लगती है, जो इष्ट है। धर्मस्नेही निहालचन्द्र ध्रुववस्तु स्वय ध्रुववस्तुको नही जानती है परन्तु पर्यायमे ध्रुववस्तु जाननेमे आती है। कारणपरमात्मा ही यथार्थतया मोक्षमार्गका हेतु है । - पूज्य गुरुदेवश्री
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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