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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) [३५]
कलकत्ता
११-३-१९६३ श्री सादर जयजिनेन्द्र ।
पत्र आपका मिला था...। 'ज्ञान-ज्ञेय स्वभाव' पुस्तक अच्छी है । अखण्ड निकाली ज्ञानस्वभावको ज्ञेय बनाकर, इस आश्रय एकाग्र हुआ ज्ञानपरिणाम, विभावअंशसे भिन्न रहता हुआ, विभावको परज्ञेयकी तरह जानता देखता है - यह ही भेदज्ञान है। साधकको एक ही समयमे, एक ही परिणाममें दोनो प्रकारका भिन्न-भिन्न अनुभव होता है व अनाकुल ज्ञानभावका आकुलित विभावअंशसे पृथक् स्वादका प्रत्यक्ष अन्तर भासित होता है।...
सोनगढ़से अभी गुरुदेव राजकोट गये हुए है । कमसे कम एक माह तक आप उनके नजदीक रहनेका प्रोग्राम बना लेवे तो अत्यधिक सार्थक होगा।
शुभैषी निहालचन्द्र
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बम्बई १३-४-१९६३
श्री सद्गुरुदेवाय नमः धर्मस्नेही शुद्धात्म सत्कार |
मै एक सप्ताहसे बम्बई आया हूँ।
सौराष्ट्रमे मेरा फ़िलहाल जाना नही हो सकेगा। अभी तो कलकत्ता ही रहना होता दिखता है। आपका उधर कोई कार्यवश आना होवे तो मै आशा करता हूँ मै अवश्य आपसे मिल सकूँगा। आप आनेकी सूचना कलकत्ता लिख देवें । यदि मेरा अजमेर, देहलीकी तरफ़ आना होगा तो मै अवश्य आपसे मिलूंगा । बाह्यनिमित्त व निमित्त आश्रित निजभावसे