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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) कीचड़मे धेसनेपर भय वृद्धि पामता जाता है परन्तु चैतन्यमे धंसनेपर निर्भयता द्धि पामती जाती है । मै चैतन्य-चैतन्यमे ही चलता हूँ; जड-जडमे विभाव-विभावमे; मुझ नित्यमें मेरी पर्याय (परिणाम)का भी प्रवेश नही है; अन्यकी बात ही क्या ? अरे ! परिणाम परिणमता है और उस ही समय 'मैं' अपरिणामी हूँ। अरे भगवान कारणपरमात्मा ! तेरे दर्शन होते ही विभावकी पीठ दिखने लगती है; तेरा यथार्थ भान हुए बिना पूर्वमे परिणामाश्रित परिणामोका इतना तीव्र बन्ध कर चुका था कि उनकी अवधि ख़तम होनेके लिये तेरे दर्शन स्वाभाविक होने ही थे । अरे चैतन्य ! तेरी इतनी पहोलाई विस्मित-सा कर देती है ! हे गुरुदेव ! आप कितनी पहोलाई तक प्रसर चुके हो, पहोलाई भी है साथ ही ठोसपना भी ! हे गुरुदेव ! आपकी वाणीका स्पर्श होते ही मानो विश्वकी उत्तमोत्तम वस्तुकी प्राप्ति हो गई । क्या मै मुक्त होनेवाला हूँ ! अरे ! शास्त्रोमे जिस मुक्तिकी इतनी महिमा बखानी है, उसे आपके शब्द मात्रने इतना सरल कर दिया ! क्या विश्वमे अब और भी कुछ चाहना बाकी रह गई ? अरे निरीच्छक वस्तु । । रागरहित अतीन्द्रिय आनन्दका अपूर्व स्वाद-अपूर्व सहज ज्ञानकला !
__गुरुदेव कहते है - "मारुं ज्ञानतत्त्व ज मने गमे छे । गमे ते क्षेत्र होय पण पोताना ज्ञानमां ज व्यापीने रहेवो छे. ज्ञानी, पुण्य-पाप (विकारीभाव) शरीर के निमित्तमां अवगाहन करतो नथी, पण पोताना ज्ञानस्वरूपी गगनमण्डलमा ज व्यापे छे." - देखी गुरुदेवकी ज्ञानानन्द मस्ती !
गुरुदेवकी कथनशैली तो देखो ! कहते है कि - "अशुद्धता रोकाई जाय छे अटले के अशुद्धता प्रगट ज थती नथी, तेने अशुद्धताने रोकतो, अम कहेवाय छे"।
अभानदशामे चैतन्यगॉठ कर्मोके संगमे कभी इधर लुढ़कती है व कभी उधर; परन्तु भानदशामे ऐसा बोध होता है कि 'अरे ! परिणाम परिणम गया और 'मैं' यूँ का यूँ ही रह गया' - ऐसा 'मैं' त्रिकाली नित्य-ध्रुव अद्भुत रत्न हूँ।