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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग-१) आशा है मुनियोके उपदेश सम्बन्धी विषयके उपरोक्त स्पष्टीकरणसे मेरा दृष्टिकोण आपके लक्ष्यमे आयेगा । दृष्टिदोष हटे बाद मुनियोको उपदेशका राग उनकी अस्थिरताका दोष है, कर्तव्य नहीं व इस दोषको स्थिरताका प्रयत्न करते-करते वह हटाते जाते हैं, कर्तव्य समझकर रखना नही चाहते। आपका प्रोग्राम लिखे व पत्र देवें।
शुभैषी निहालचन्द्र सोगानी
कलकत्ता ९-१२-१९६२
श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी धर्मस्नेह।
पत्र ता. २२-११का यथा समय मिला | "अस्थिरतासे देवादिक प्रत्येके परिणामोंमे खेद वर्तते व अखण्ड सद्भावरूप परिणमन होते हुए धर्मीजीवकी बुद्धिपूर्वक देवादिक प्रत्ये स्वरूप दृढीभूत करनेके आशयकी प्रवृत्ति मुख्य तौरसे होती रहती है, ऐसा दिखता है " इस पर विशेष स्पष्टीकरण चाहा सो निम्न है :
१. स्वरूपकी दृढ़ता देवादिक प्रत्येकी वृत्तिसे निश्चय ही नहीं होती।
२. मनआश्रित (विचारपूर्वक) मान्यतासे यथार्थ अखण्डआश्रित सहज आंशिकवृत्तिका सद्भाव (उद्भव) नही हो सकता।
३.त्रिकाली अस्तित्वमयी स्व, इस आश्रित परिणमी हुई आंशिक शुद्धवृत्ति व देवादिक प्रत्येकी आंशिक बाह्य वृत्ति - तीनो अंशोंका एक ही समय धर्मीको अनुभव होता है, जिसमे मुख्य - गौणका प्रश्न नहीं।
४. स्वके मापसे अन्यका माप किया जाता है । 'मैं' त्रिकाली ही हूँ,