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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग -१)
कलकत्ता १५-११-१९६२
श्री सादर जयजिनेन्द्र ।
आपका ता. १२-११-६२का पत्र मिला । अन्य लोगोंके चरित्रनिर्माण सम्बन्धी आपका दृष्टिकोण ख़यालमे रखते हुए नीचे स्पष्टीकरण लिखा है :
१. प्रथम तो मैं क्या हूँ व क्या कर सकता हूँ, इसका यथार्थ खुलासा होनेपर कार्यकी यथार्थ सीमा बॅध सकेगी। मै आत्मा हूँ व परिणामका करना और उस ही परिणामको भोगना यह ही मात्र आत्माकी क्रिया है, इसके विपरीत स्वयंके जड़ शरीर आदिका व अन्य आत्माका परिणाम मै आत्मा नही कर सकता, कारण जड़के परिणामका कर्ता जड़ द्रव्य है व अन्य आत्माके परिणामका कर्ता वह आत्मा द्रव्य है। ("उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्")।
२. उक्त प्रकारका यथार्थ निर्णय हुए बाद परपरिणामके किचित् भी कर्तापनेका अभिप्राय टूट जाता है । मै परका कुछ कर ही नही सकता, तब पराश्रित परिणाम क्यो करूँ, जो कि स्वयं आकुलतामय ही होते हैं। इन परिणामोंको स्वआश्रित करे तो शुद्ध ज्ञान-आनन्द व शान्तिमय परिणाम होगे व इनहीका भोगना होगा, जो कि वांछनीय है।
____३. स्वमें अर्थात् ज्ञान-आनन्द आदि गुणोके भण्डार आत्मामे परिणामोको पसारते ही साधकपना व मुनिपना आदि क्रमपूर्वक आता है । परिणामोके इस प्रकारके प्रसरणमे ही यथार्थ ज्ञान, सुखादिका अनुभव उत्पन्न होने लगता है। जिसकी प्रत्यक्षतासे पराश्रित आकुलित परिणाम विषरूप मालूम होने लगते है, जो कि सम्यक्दृष्टि साधक व मुनियोको एक समय मात्रके लिये भी नही रुचते ।
४. उक्त मान्यता व तद्रूप अनुभव होनेपर अनादिसे चला आया दृष्टिका मोह टूटता है। दृष्टिने जिस स्व अखण्ड स्व आत्माको लक्ष्य किया, उसमे एकसाथ परिपूर्ण परिणामका प्रसरण नहीं होता तब तक परिणामका