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आध्यात्मिक पत्र
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कुछ अंश अखण्डके साथ सुखरूप परिणमता है व उसही परिणामका कुछ अंश उदयके साथ पराश्रित दुःखरूप परिणमता है । साधक व मुनिके, इस प्रकारका पराश्रित परिणमा हुआ रागअंश उपदेशादिकका कारण होता है । यह रागअंश चारित्रमोह है, आकुलतामयी है, यह हर समय हेय है, प्रत्यक्ष दुःखरूप है जो कि मुनियोको बिल्कुल रुचता नही व इसमे उन्हे रस आता नही । पुरुषार्थकी निर्बलतासे अखण्ड आत्माकी पूरी पकड़ चारित्र परिणाममे नही होनेसे ऐसा रागअंश होता है, जिसका निषेध प्रतिसमय उनकी दृष्टि करती रहती है । एक समयके लिये भी चारित्रमोहस्वरूपी रागअंशको वह अपना कर्तव्य नही समझते जो कि प्रत्यक्ष दुःखरूप है । अतः वारम्बार स्वमे स्थित होते हुए, रागअंशको तोड़ते हुए, वह शुद्ध सिद्धरूप हो जाते है |
५. मुनियोके रागांशनिमित्तक उपदेशमे उक्त आशयका संकेत होता है । अच्छी होनहारवाले जीवके वह निमित्तरूप पड़ता है और वह स्वयं भी उपदेशादिककी तरफ़से लक्ष्य हटाता हुआ, उपदेश आदिको मुनियोका कर्तव्य नही समझता हुआ, उनकी अस्थिरताका दोष समझता हुआ, उनपरसे वृत्ति हटाकर स्वज्ञानकी खानमे प्रवेश करने लगता है । अरिहन्तोके उपदेशमे निमित्त उनका राग नही है वरन् कम्पनकी अस्थिरता है ।
६. राग व वीतरागता दोनो कर्तव्य नही हो सकते, कारण दोनो भाव परस्पर विरुद्ध है । अतः अन्यके चरित्रनिर्माणके कर्तव्यमे वीतरागी कर्तव्यका सहज ही अभाव है; साथ ही अन्यके परिणामका कोई कर्ता हो ही नही सकता चाहे मान्यता बनाकर स्वयं दुःखी होता रहे ।
७. एक बार प्रथम सम्यक्त्व तो अधिगमज उपदेशके निमित्तसे ही होता है। दूसरे भवमें उन संस्कारोके निमित्तसे बिना उपदेश सम्यक्त्व प्राप्त करनेको नैसर्गिक कहते है । परन्तु स्वयं पराश्रित दृष्टि हटाकर, स्वआश्रित परिणाम करे तो उपदेशको निमित्त कहा जाता है, कर्ता नही । जिसकी योग्यता होवे उसको निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्धका सहज ही योग होता है, ऐसा निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध अनादिसे चला आता है व चलता रहेगा ।