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आध्यात्मिक पत्र संग भी नही रुचते, उसे कुटुम्ब-संग तो रुच ही कैसे सकता है !' अरे ! विकल्पाश्रित पदार्थसे भी लाभ नही, साथ ही विकल्पसे भी लाभ नहीं । ___आपने लिखा कि 'निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध ऐवो छे के तीव्र भावना होय तो पापनो उदय पलटीने पुण्यनो उदय थई जाय । विकल्पानुसार पदार्थकी प्राप्ति होना पुण्य नही है, वरन् तीव्रता पलटकर मन्दता होना पुण्य है । अतः राग छूटने अथवा कम होनेमे सुख है, पदार्थके मिलनेमे नही । अतः आत्माश्रित रागकी मन्दता होवे, यह ही भावना है। __गुरुदेव कहते हैं : “ इच्छामां सावधानपणुं ज्ञानीने नथी, पोताना स्वभाव- सावधानपणुं चूकीने परपदार्थमां सावधानपणुं ज्ञानी करतो नथी" -ज्ञानीने इच्छानी इच्छा नथी । प्रदेशे-प्रदेशे मै मात्र चैतन्य-चैतन्य व आनन्द ही आनन्दसे ओत-प्रोत वस्तु हूँ । स्वरूपरचना पर्यायमे स्वतः ही हुए जा रही है । इच्छा तोडूं, स्वरूपकी वृद्धि करूँ आदि विकल्पोका जिस सहज स्वभावमे सहज ही अभाव है। अरे ! सहज शुद्धपर्यायका भी जिस त्रिकाली ध्रुववस्तुमे सहज ही अभाव है, ऐसी नित्य वस्तु मै हूँ, त्रिकाली परिपूर्ण हूँ - ऐसी दृष्टि एकबार अवश्य-अवश्य हो जाओ - बस ! सुखसमुद्रका दरिया एकदम सहज उमड़ पड़ेगा । परके लिये विकल्प करना बेकार है। अरे ! मै बिना किसीके ही अभी ही परिपूर्ण है, एकबार ऐसी तीव्र भावना होनी चाहिए, ताकि सामान्य वस्तुके बोधका अवसर आये । 'परमे सावधानीपणा नही, स्वमे सावधानीपणा होना चाहिए।
अरे द्रव्य सामान्य ! तेरे प्रतापसे झुकती हुई पर्याय (परिणाम) भी सहज खड़ी होती जाती है; अनादिका बोझा प्रतिक्षण हटता जाता है; उत्तरोत्तर सुखकी वृद्धि होती जाती है ।... धन्य है तेरा बोध ! गुरुदेव कहते है:
"ज्ञानीने ज्यां स्वरूपनिधान प्रगट्यु, त्यां पर्यायमां (शरीरमे नही, परिणाममें) जुवानी आवी जाय छे, निर्भयता अने निःशंकता थई जाय छ । क्षणे-क्षणे अबन्धस्वरूप प्रगट थतुं जाय छ । वर्तमान पुण्यभाव थाय अने अनुं फल हजो, ओवी वांछा ज्ञानीने नथी।"