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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १)
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कलकत्ता १६-१२-१९६१
श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी धर्मस्नेह ।
लगभग बीस दिवससे रागांशमें विशेष खेद-खिन्नता वर्त रही है, ऐसे समय आपका पत्र मिलनेसे प्रसन्नता हुई । वहाँसे आये पश्चात् १-१॥ माह तक सोनगढ़की विशेष खुमारी रही, अभी तो उसका शतांश भी नहीं है।
व्यावसायिकस्थितिमे कई प्रकारके परिवर्तन हो जानेसे, अब चले, अब चले, सोचते हुए भी वहाँ आनेका प्रोग्राम नहीं बन सका । गुरुदेवश्रीकी ऑखके
ऑपरेशनके ता. २४ बाबतके समाचार 'सुवर्णसन्देश मे भी पढ़े थे । परन्तु पुण्ययोगके अभावमे उनके साक्षात् दर्शनववाणीका लाभ कैसे मिले ? व्यवहारसे वख़ासतौरसे अशुभयोगसे पूर्ण निवृत्तिचाहते हुए भी, गृहस्थ आदिव्यावसायिक जनालोंका ऐसा उदय है कि मन नहीं लगे वहाँ लगाना पड़रहा है, बोलना नही चाहते उनसे बोलना पड़ता है, ऐसी योग्यता है।
हे गुरुदेव ! लोकोत्तर लाभ हेतु आपके वचनो पर श्रद्धा की है, आशीर्वाद देता हुआ आपका मोहक चित्र देखा है । आपके आशीर्वादसे पूर्ण आनन्दमयी निधिको प्राप्त हो जाऊँ और अनन्त पदार्थोके तीनकालके अनन्ते भाव वर्तमान एक-एक भावसे अविच्छिन्न प्रत्यक्ष होते रहे - ऐसी तीव्र अभिलाषा है । दरिद्रीको चक्रवर्तीपनेकी कल्पना नही होती । पामरदशावालेको 'भगवान हूँ...भगवान हूँ' की रटन लगाना, हे प्रभो ! आप जैसे असाधारण निमित्तका ही कार्य है । परिणतिको आत्मा ही निमित्त होवे अथवा भगवान...भगवानकी गुंजार करते आप; अन्य संग नही; यह ही भावना।
मेरा यहाँ रहनेका अथवा बाहर जानेका प्रोग्राम तो सदैवकी तरह अनिश्चित-सा ही समझो।
अशुभयोगमे कटाला हुआ
-चेतन