________________
२६
द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १)
पूर्व उदय, अखण्ड स्वरूप संस्थानमे दौड़ लगाते हुए, सीमास्पर्शके पूर्व ही भयभीत होकर निराश्रय, लड़खड़ाकर गिरने लगते है । क्रमः क्रमः पूर्णता होनेकी, सुख-शान्तिके अनुभवपूर्वक निःशंकता वृद्धि पामती है।
बलवानका सब साथ देते हैं । साधकके अखण्डबलके जागृत होते ही, अचेतन पुद्गलादि भी अखण्ड स्वरूपाकार वर्तकर सहायक (व्यवहारे) होने लगते हैं ।
पत्रोत्तर मिलना, नही मिलना, विलम्ब होना आदि सब विस्मृत करने योग्य हैं । ज्ञानानन्दस्वभावकी अनुभूतिमे भङ्ग पड़नेपर लिखने आदिके विकल्प होते हैं सो सब स्वरूपसे निकलते ही प्रत्यक्ष, उन्मत्त- पागलपनकी जड़दशास्वरूप अनुभवाते है। जड़से जड़के सम्बोधनोमें चेतनको कोई लाभ नही ।
वर्तमान पर्यायमे पूर्व - उत्तर कालकी पर्यायका ज्ञान विद्यमान है तब स्मरण, मननका बोझा उठाना व्यर्थ है ।
शुभयोगमें भी थकान अनुभव करनेवाले जीवके लौकिकयोगकी तीव्र दुःखदशा पर... हे करुणा सिन्धु ! करुणा करो... करुणा करो, यह ही विनती ।
पर्याय ही पर्यायका कर्ता है, त्रिकाली अंश अथवा आखा द्रव्य नही, यह 'कर्ता - कर्म' की चरम सीमा है । अतः पर्यायमें आखा एकाकार होना योग्य नहीं ।
सबको यथायोग्य |
- निरन्तर समाधि इच्छुक
मै तो चिन्मय अखण्ड ज्योतिस्वरूप हूँ, पर्याय रूप नही । पर्याय द्रव्यका आश्रय करती है, लक्ष्य करती है इससे पर्याय शुद्ध होती है।
- पूज्य गुरुदेवश्री