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आध्यात्मिक पत्र
आध्यात्मिक पत्र
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कलकत्ता १-११-१९६१
. कलकता
सतत दृष्टिधारा बरसाते, चैतन्यके प्रदेश-प्रदेश सहज महान् दीपोत्सवकी क्षणे-क्षणे वृद्धि करते श्री गुरुदेवको अत्यन्त भक्तिभावे नमस्कार ! धर्मानुरागी
पत्र यथासमय मिला । मेरे प्रतिके अनुरागसे, बारम्बार आप लोगोको मुझे वहाँ बुलानेका विकल्प होता है । परन्तु पूज्य गुरुदेवके सानिध्यका, दीपावलीके अवसरपर, मुझे लाभ सम्भव नही है। ऑखके ऑपरेशनका समय कम रह गया है सो पूरा-पूरा ख़यालमे है।
श्री दीपचन्दजी आदि वहाँ आये हुए है व मेरे सम्बन्धमे कुछ वात भी हुई लिखा सो जाना । अधिक क्या लिखू ? श्री बनारसीदासजीके पद दोहरा देता हूँ:
"मै त्रिकाल करनीसौ न्यारा, चिदविलास पद जग उजयारा । राग विरोध मोह मम नाही, मेरो अवलम्बन मुझ माही ।"
"तजि विभाव हूजे मगन, सुद्धातम पद माहि ।
एक मोख-मारग यहे, ओर दूसरो नाहि ॥" आप सवोको जय जिनेन्द्र।
आपका निरीच्छुक मोक्षाभिलाषी
आनन्द सहितके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते है। चैतन्य आत्मासे प्रेम करना, निर्विकल्प शाति द्वारा आत्माको देखना, वह धर्म है। भगवान अन्तरमे विराजते है उन्हे वाहर विकल्पोमे, रागकी क्रियामे अज्ञानी खोजते है।
- पूज्य गुरुदेवश्री
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