________________
१५
आध्यात्मिक पत्र है । यहाँ भी तीव्र भावनाएँ थी कि पूज्य गुरुदेवके विहारमे अवश्य साथ होऊँ । कुछ दिनो अजमेर रहना हुआ, वहाँसे उमरालाका प्रोग्राम भाई सोभागमल दोशी भजनमण्डलीवालोके साथ जमाया था, परन्तु वह भी पूर्ण नही हो सका । यहॉसे गए पश्चात् २०-२५ दिन शारीरिक अस्वस्थ्यताके कारण देर अधिक हो गई थी, अतः मिलवालोके तार-टेलिफोन बहुत आनेसे, अत्यन्त खेद है कि पूज्य परमोपकारी गुरुदेवके दर्शन बिना ही कलकत्ता वापस लौटना पड़ा। अब इस हालतमे उधर जल्दी आनेका प्रोग्राम फिलहाल नज़र नहीं आता है । सेठ बच्छराजजी, मालूम हुआ कि सोनगढ़ गए है, पहुंचे होगे । पुण्ययोग नही है, वहॉका संयोग नही है, अरुचिकर वातावरणका योग है । महान् अफ़सोस है । आपकी बारम्बारकीभावनाओको, मुझे वहाँ बुलानेको, मै भलीभॉति समझ सकता हूँ; मेरा भी हृदय वहॉके लिये अब आतुर है । काफ़ी समय हो गया है। पूज्य गुरुदेवकी व सोनगढ़के वातावरणको स्मृतियों बारम्बार उत्साहको बढ़ाती रहती है। पापबन्ध ढीले पड़ते है, पुण्यबन्ध वृद्धि पाते है, विवेकमे है; पर इन सबसे क्या ? अहो गुरुदेव ! आपने तो इन दोनोसे ही निराली वृत्ति दिखा दी है, जो कि इनके होते हुए भी विचलित नही होती, खूटेके सहारेसे डिगती नही है, उसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका प्रतिबन्ध नही है । पूज्य गुरुदेव कहते है कि जो कुछ लाभ है सो तो यह वृत्ति ही है, अनन्त सुखोके पिण्डके साथ रहती है, फिर चिन्ता काहेकी ? यह तो स्वयं स्वभावसे ही चिन्ता रहित है, निश्चिन्त वृत्तिमे चिन्तित वृत्तिका तो अत्यन्त अभाव है । हे भगवान ! आपकी यह वाणी मस्तिष्कमे नित्य घूमती रहे, यह ही भावना है। अधिक फिर ।...
धर्मस्नेही निहालचन्द्र
• जिनवर और जीवमे अन्तर नही ।
- पूज्य गुरुदेवश्री