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[३०] नियंता, मुक्तिनाथ, निष्कारण करुणा सागरके प्रति साक्षात् श्रद्धा-सुमन समर्पित करने और उनकी पवित्र चरणरजको अंतिम बार अपने मस्तकपर चढ़ानेके अभीष्टवश, मई १९६४ में 'दादर' में समायोजित पू. गुरुदेवश्रीकी मंगलकारी ७५वी जन्म जयंतीके प्रसंग पर सपरिवार बम्बई पहुँचे । वहाँ उन्होंने अपने मुक्तिदाताके अन्तिम दर्शन किए और श्रीगुरुके परम उपकारके प्रति कोटि-कोटि आभार स्वीकारते हुये, भावॉजलि समर्पित की । और वहाँसे लौटनेमे वे अपनी धर्मपत्नीको अजमेर छोड़ते हुए, छ जून १९६४ को कलकत्ता आ गये । उस दिन वे अत्यन्त शांत और प्रकृतिस्थ दिखाई दिये, स्वस्थ और प्रसन्न । * चिर विदाई :
दूसरे दिन ७ जून १९६४ को श्री सोगानीजीको वातावरणमे अस्वाभाविक गर्मी और घुटनका अनुभव हुआ। उन्होने अपना पलंग सरका कर पंखेके नीचे करवा लिया। उनके सीनेमे हलका-हलका दर्द होता रहा परन्तु उन्होने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया । सारे दिनका उपवास । 'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ जो पिछले वर्षोमें उनके लिए धार्मिक स्वाध्यायका आधारभूत रहा था - का परायण । आत्मघोलन व शांतमुद्रा । संध्याको ५ बजे वेदनाका कुछ अधिक भान हुआ; फिर भी स्नान किया; मानो संसारसे प्रस्थानपूर्व जड़ शरीरकी शुद्धि कर लेनेका उपक्रम हो । संयोगवश उस समय घरमें केवल उनकी कनिष्ठ पुत्री कुमुदलता ही थी । पुण्यात्माको शरीर तो एक व्यर्थ बोझा-सा ही लगता था। कालका मानों सदैव स्वागत था । वस्तुतः पुण्यात्माके लिए तो मृत्यु एक बड़ा भारी महोत्सव-सा होता है। शांत शरीर बिस्तर पर पड़ा रहा और वे अपने स्वमे लीन हो चुके थे । परम पुण्यात्माको ऐसा योग बना कि अकस्मात् हृदयगतिने रुद्ध होकर आत्मा के लिए, शरीरके इस व्यर्थ बोझसे मुक्त कर, वास्तविक मार्ग प्रशस्त कर दिया । डॉक्टर आया, पर उसके लिए करने जैसा कुछ नही रहा।