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अध्ययनमे खोये रहते थे । तदर्थ वे नई-नई किताबे ख़रीदते रहे, जिससे इनका संग्रह बड़ा होता गया । उनके अध्ययनकक्षमें सत्साहित्यका विपुल भण्डार था । यद्यपि तत्त्वज्ञानके आत्मसात् हो जानेके पश्चात् उनका पढ़नेके प्रतिका झुकाव क्षीण होता गया था; तथापि पू. गुरुदेव श्रीके प्रवचनोके प्रकाशन आदि तो उनके पास नियमित आते रहते थे । इस प्रकार निरन्तर वृद्धिगत होते सत्साहित्यके लिए किरायेके छोटे-से घरमे जगह बनाने मे उनकी धर्मपत्नीको बड़ी असुविधा होती थी । तथापि ऐसे संयोगोंमें वे अत्यंत भावुक होकर कहतेः 'यही तो मेरी पूँजी है। बच्चोके लिए यही तो विरासत में छोड़कर जाऊँगा ।" ... "आचार्योंके इन्ही शास्त्रोसे तो आनंदरस बूँद-बूँद कर टपकता है ।"
प्रत्यक्ष सत्श्रुतयोगमे उनके नेत्र पूज्य गुरुदेव श्रीके मुखमण्डल पर ही टिके रहते और वे श्रीगुरुके श्रीमुखसे निर्झरित तत्त्वामृतको स्थिर उपयोगसे इतनी एकाग्रतासे अवधारते रहते कि उनके अगल-बगलमें कौन बैठा हुआ है उसका उन्हे भान तक नही रहता था
* प्रचण्ड पुरुषार्थका अवसर :
सन् १९६१ का वर्ष श्री सोगानीजीके लिए सर्वाधिक हादसो भरा रहा । इसी वर्ष उनके पिताश्रीका देहांत हो गया; और उसीको चंद महिनों बाद उनके चाचा श्री हेमचंद्रजी, जिनका उनकी शिक्षा-दीक्षामे विशेष रुचि व योग रहा था, का भी देहावसान हो गया; और इसी वर्ष में उन्हे क्रूर नियतिका एक और झटका लगा जिससे उनके शरीर छूटने जैसा योग हो गया था । लेकिन धर्मात्प्रभोके लिए तो ऐसे प्रसंग महोत्सव स्वरूप होते है ।
श्री सोगानीजी एक दिन शामको घर लौट रहे थे । उनके हाथमे एक बैग था । उसमें रुपये होनेके भ्रमसे कुछ असामाजिक तत्त्वोने उनके पेटमें ९ इंच लम्बा छुरा भोंक दिया । वे वही गिर पड़े । अत्यधिक रक्तस्रावसे उनकी स्थिति गम्भीर और विशेष चिंताजनक हो गयी। अस्पतालमे डॉक्टरोको