________________
द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग-१)
[२]
अजमेर
२९-९-१९४९ आत्मार्थी प्रत्ये निहालचन्द्रका धर्मस्नेह ।
अभी अभी आपका कार्ड मिला !...मै परिस्थितिवश दिवालीके पहेले वहाँ नही आ सकता । दीवालीके दूसरे या तीसरे दिवस वहाँ आऊँगा!...
वहाँ 'सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार' पर व्याख्यान होता है; मैने पहले भी ऐसे समय पर वहाँ उपस्थित होना सोचा था; परन्तु अभी भी नहीं आ सकता, यह पुण्यकी कमी है। साथ ही गुरुदेवश्रीके गुरुमन्त्रका उपयोग करते रहनेसे अर्थात् अखण्ड ज्ञानस्वभावका आश्रय लेते रहनेसे, जैसे-जेसे पुण्यविकल्प सहज ही टूटते जाते है वैसे-वैसे आत्मामे सर्व विशुद्धि सहज ही विकसित होती जाती है, अतः परम सन्तोष भी है।
कलकत्ता व हिसार आदिसे पंडितगण व मुमुक्षुजन वहाँ आ रहे है, यह उनके पुण्यका उदय समझो; और यदि उन्होने वहाँ यथार्थ दृष्टि करली तो उनके परम पुण्यका उदय समझो । निमित्त-नैमित्तिक ज्ञानका सम्बन्ध बताता है कि जहाँ तीर्थकरकी तैयारी होती है वहाँ गणधरसे लेकर केवलियो तक की भी कमी नही रहती । समुदाय का समुदाय ही केवलज्ञानकी तैयारीके सन्मुख बढ़ता ही जायेगा, ऐसी टूढ़ प्रतीति होती जाती है । ___ अजमेरका वातावरण अभी शुभोपयोगी मिथ्यादृष्टियोसे भरा हुआ है। कभी-कभी गुरुदेवकी ठोस, निःशंक, निःस्वार्थ व स्वआश्रित वाणीका असर फैलता है; फिर पूर्व आग्रहोके कारण दब जाता है; अन्तमें पात्र होगे वे ठिकाने आजायेगे।
प्रतिमाजी परसे कीकी (आँख) का चिह्न निकाल लिया गया यह बहुन ही अच्छा हुआ, ऊपरी-बाह्य द्रष्टिवालोके यह एक बाधक कारण होता था।
पूज्य गुरुदेवको अत्यन्त भक्तिपूर्वक प्रणाम व ओर मुमुक्षु माईयोको यथायोग्य।