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आध्यात्मिक पत्र
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कालिम्पोग (दार्जिलिंग)
२४-८-१९५३
"ऐसे मुनिवर देखे वनमे, जाके राग-द्वेष नही मनमे "
आत्मार्थी
मै कलकत्तासे एक माह लगभग हुआ बाहर गया था, परन्तु खेद है सोनगढ़ आनेका सौभाग्य नही हो सका । सेठ बच्छराजजीके साथ 'गया' जाना हुआ था ।...
सेठ वच्छराजजी व मोहनलालभाईका सोनगढ़ जल्द जानेका विचार है, परन्तु खेद है मै फिर भी अभी नही आ सकता; दीवालीके पास तक आना हो सकेगा ऐसी आशा है । परसो यहाँसे कलकत्ता जाऊँगा ।
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वहाँ परम पूज्य श्री सद्गुरुदेव परम सुख-शान्तिमे विराजते होगे; हृदयमे उनको नमन करता हूँ ।
"अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायो । ज्यो शुक नभ चाल विसरि, नलिनी लटकायो " |
" मन वच तन करि शुद्ध भजो 'जिन' दाव भला पाया । अवमर मिले नही फिर ऐसा, यो सत्गुरु गाया " || "धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी ।
वरसत भ्रमताप हरन, ज्ञान घन झरी" ॥
वहॉ सर्व मुमुक्षु मण्डली श्री गुरुदेवकी धर्मामृत-वाणी- पानमे मग्न है;
विचार आते ही, दूर रहने रूप दुर्भाग्यका खेद होता है ।
"चिद्राय गुन सुनो प्रशस्त गुरु गिरा ।
समस्त तज विभाव, हो स्वकीयमे थिरा" |
"कुगुरु, कुदेव, कुश्रुत सेये मै, तुम 'मत' हृदय धस्यो ना । परम विराग ज्ञानमय तुम, जाने विन काज सस्यो ना” | "हे जिन | मेरी ऐसी बुधि कीजे । राग-द्वेषदावानल ते वचि, समता रसमे भीजे" 11
धर्म नही निहालचन्द्र