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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश ( भाग - १ )
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अजमर
१७-१-१९५४
आत्मार्थी धर्मस्नेह |
आपका पत्र मिला । समाचार निगाह किये । इस समय सोनगढ़का वातावरण विहारकी अद्भुत उमंगोसे भरा हुआ होगा । सर्वश्रेष्ठ नेता सहित मोक्षमण्डली स्थान-स्थान पर विजयका स्तम्भ रोपने जा रही है, यह विचार हृदयको खूब उल्लसित करता है। दुर्भाग्यवश मुझे ऐसे अवसर पर वहाँ नही रहनेका खेद है । आशा है गुरुदेवश्रीका आत्मस्वास्थ्य व शारीरिक स्वास्थ्य निरन्तर वृद्धिगत होगे ।
आपने व्यावसायिक, यहॉकी मेरी परिस्थिति बाबत पूछा सो इस विषयको आपको लिखनेका विचार नही होता है। हमारी नीव तो मुक्तिरसके विचारों पर पड़ी है । दूसरे विचारोमे आपको रस आवे, यह मुझे अच्छा नही लगता । अभी कार्यवश पत्र बन्द करता हूँ । आपका प्रोग्राम लिखते रहना । स्वस्थानको मुख्य रखकर ही परस्थानोके क्षणिक विकल्पोका सहज ज्ञान होता रहे, यह ही इच्छा है ।
धर्मस्नेही निहालचन्द्र
कलकत्ता
१-२-१९५४
धर्मप्रेमी
निहालचन्द्रका धर्मस्नेह |
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आशा है कल दिन मुक्तिदूत श्री सद्गुरुदेव व मुमुक्षुगण राजकोट सकुशल पहुँच गये होगे । लोकमे अलौकिक क्रांति फैल रही होगी ।
आपका पत्र मिला । मांगलिक विहारके आदि व अन्त स्थान गुरुदेवश्री की जन्मभूमि 'उमराला' का चित्रित दैनिक अंक भी मिला । यहाँ इस भक्तिभावपूर्ण अंकको मुमुक्षुओके बीच वांचनेका शुभयोग भी मिला । सबोने हृदयसे रसास्वादन किया ।