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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १)
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कलकत्ता
१८-५-१९५३ श्री सद्गुरुदेवाय नमः तीव्र धर्मानुरागी
धर्मस्नेहीका पत्र दूरसे देखते ही चित्त प्रसन्न हो उठता है । आपका कार्ड पढ़ा।
धन्य है गुरुदेव, उनका जन्मदिवस व जयन्तीका प्रत्यक्ष लाभ लेनेवाला पुण्यशालियोका समूह ।
जिनके दर्शन मात्रसे तीव्र मुमुक्षु कृतकृत्य हो जाते है, ऐसे गुरुदेवके जन्मदिवस बारम्बार उजवाते रहे, यह ही भावना है।
एक युगसे आपकी निरन्तर पूज्य परमोपकारी गुरुदेवके प्रति भक्ति व तत्त्वकी तीव्र जिज्ञासा भरा हृदय, हृदयमे पूर्ण अंकित है । प्रारब्धने अबके वहॉके सहवासका ऐसा संयोग कराया कि वहॉकी अनुपस्थितिमे, मनोयोग, वहॉके लक्ष आश्रित, मौनपणे, प्रतिकूल परिस्थितियोमे भी, आत्मकथा करता रहे। मानो भावी अपूर्व विकल्पोके लिये एक नये निमित्तका जन्म हुआ।
यहाँ संग, असत्संगका है, उदय नीरस है । वहॉका योग निकट भविष्यमे होनेके आसार दिखाई नही देते, अतः अत्यन्त उदासीनता है व व्यवहारमे तो बेभान-सी दशा हो जाया करती है।
सत्गुरु द्वारा प्राप्त अनुभव ऐसे कालमे विषमता आदिको समतापने वेदे व अप्रतिबद्ध स्वभावसन्मुख तीव्र वेग करे, यह ही सबसे श्रेष्ठ है व शीघ्र मनोरथ पूर्ण होनेका यह ही शुभ लक्षण है।।
बन्ध रुचिवाला सर्व क्षेत्र-कालादिकमे बन्धरूप ही रहता है, अबन्ध रुचिवाला सर्व क्षेत्र-कालादिकमे अबन्धरूप ही रहता है, यह नियम है ।
__ "देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति, तत्र तत्र समाधय ||"
[- 'श्रीमद् (राजचद्र) से उदधृत)