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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १)
लिये वहाँ रहनेको आ सकूँगा । आशा है वहाँ सर्व कुशल होगे । आपका वहाँका पत्र कभी-कभी आनेसे एक प्रकारका सम्बन्ध वहाँका बने रहनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त है, यह मेरे पुण्यका योग है, ऐसा मानता हूँ । यहाँ योग्य कार्य लिखे ।
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धर्मस्नेही निहालचन्द्र सांगानी
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आत्मार्थी
प्रत्यं निहालचन्द्रका धर्मस्नेह |
आपका कार्ड अजमेरसे लौटकर यहाँ आया, कारण मै अधिकतर आजकल यहाॅ ही रहता हूँ । योग कुछ ऐसा ही है कि आर्थिक सम्बन्धकी अपेक्षा प्रत्यक्ष तौर पर मेरा धार्मिक संग इस समय दूर-सा हो रहा है और मै बहुत समय से सोनगढ़ नही आ सक रहा हॅू। यह कहना व्यर्थ है कि अन्तरंग, यहाॅ होते हुए भी मुझे वहाँ की स्मृतियाँ, ऐसा कोई दिन न होगा कि नही आती रहती होवे । पूज्य गुरुदेवकी स्मृति इस समय भी आ रही है व ऑखोमे गर्म ऑसू आ रहे है कि उनके संग रहना नहीं हो रहा है । उनका असंगरुचिका उपदेश ( अथवा स्वसंगका ) कानोमे गूंजता रहता है और उसकी रमणतासे ही यहाॅ की उपाधियाँ ढीली सी रहती है । उस दिनकी प्रतीक्षामे हॅू कि कब उस गरजती हुई दिव्यमूर्तिके चरणोमे शीघ्र अपने आपको पाऊँ ।...
आशा करता हॅू कि आपकी परिणति स्वस्थ्य होगी । पूज्य गुरुदेवके चरणोमे मेरा सादर भक्तिपूर्वक नमस्कार और सब भाइयोसे धर्मस्नेह ।... धर्मस्नेही निहालचन्द्र सागानी
कलकत्ता
२१-६-१९५२