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आध्यात्मिक पत्र
कलकत्ता
२८-१०-१९५२ आत्मार्थी प्रत्ये निहालचन्द्रका धर्म स्नेह ।
.. कुछ ऐसा योग है कि अभी तक मेरा उधर आना होता ही नही है । सहज परम निवृत्तिमय कारणपरमात्माका आश्रय पूज्य गुरुदेवने ऐसा बतला दिया है कि उसके अवलम्बनसे सहज परम अनाकुलता उत्पन्न होती रहती है; कही आने-जाने आदिके समस्त विकल्पों रहित अनादि-अनन्त स्वमे ही स्थिर हूँ तो कहाँ आना व कहाँ जाना; फिर भी वहाँ न आनेका खेद वर्तता रहता है।
धर्मस्नेही निहालचन्द्र
अजमेर
१८-४-१९५३ आन्मार्थी धर्मम्नेह ।
मै यहाँ कल आ पहुंचा था।...स्वकुटुम्बियोसे भी अधिक वात्सल्ययुक्त आपका व्यवहार प्राप्त होनेसे इस समयकी मेरी सोनगढ़ यात्रा अपूर्व रही । महोत्सवके आरम्भसे अन्त तकके वहॉके सुखदायी दृश्य अव तक स्मृति पर दौड़ते रहते है।
गुरुदेवके निकट रहनेसे पर्यायस्वभाव उग्रतर रहा करता था व सोनगढ़ स्थान व वहॉके मुमुक्षुओकी उपेक्षा-सी हो जाया करती थी, परन्तु अब तो वहॉकी धूलके लिये भी तड़पना पड़ता है। गुरुदेवके दृष्टान्त अनुसार भभकती भट्ठीमे गिरनेका-सा प्रत्यक्ष अनुभव यहाँ एक दिनमे ही मालूम होने लग गया है। धन्य है वहॉके सर्व मुमुक्षु, जिनको सत्पुरुषका निरन्तर संयोग प्राप्त है।... सब सहजानन्दकी रमणतामे प्रचुर मस्त रहे, यह ही आकांक्षा है ।
धर्मस्नेही निहालचन्द्र