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आध्यात्मिक पत्र
अजमेर
३-७-१९५० आत्मार्थी .प्रत्ये निहालचन्द्रका धर्मरनेह ।
आपका कार्ड प्राप्त हुआ । आरम्भमे ही सर्वत्र उपादेय, यथोचिर विशेषणो द्वारा स्तुत्य गाढ़ आत्मसंवेदनरूपी आपका नमस्कार पढ़कर र
आत्मस्वास्थ्यमे निरन्तर वृद्धिकी भावना देखकर चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ।
पूज्य गुरुदेवश्रीका मुमुक्षुगण सहित राजकोटके विहार कार्यका सुन्दर धर्मप्रभावनापूर्वक पूर्ण होना जान कर इस बातकी प्रतीति होती है मानो नायक सहित सर्व संघका निश्चय प्रभावनारूपी कार्य भी शीघ्र व निर्विघ्न रीतिसे पूर्ण होनेवाला है । आपश्रीका निश्चित स्थान, सोनगढ़का आगमन इस वातका द्योतक होता है मानो हम सबकी परिणतिका त्रिलोकरूपी राजकोटका विहाररूपी भ्रमण समाप्त होकर निश्चित अविनाशी स्व स्थान - अमृतमयी चैतन्यलोक आत्मगढमे आगमन हो रहा है, जहाँ कि सहज आनन्दसे तरंगित सहज आत्मरमणरूपी विहार सादि अनन्तकाल तक स्वाभाविक ही होता रहेगा।
पूर्व उदयके योगसे मै आप जैसे पुण्यशालियोकी तरह श्रीगुरुदेवके समीप रहकर उनके संगका, उनके वचनामृतका निरन्तरलाभ नही ले सक रहा हूँ, इसका मुझे महान-महान खेद होता है। साथ ही उनके बोध द्वारा वोधित मुझे यह सन्तोष भी होता है कि निश्चयसे सतगुरुदेव मुझसे दूर नही है - जहाँ मै हूँ वहाँ ही मेरे गुरु है, अतः मै मुझमे मेरे गुरुदेवको देखनेका सतत प्रयत्न करता रहता हूँ और जव-जव गाढ़ दर्शन होता है तब-तब अपूर्व-अपूर्व रसास्वादका लाभ लेता रहता हूँ, मानसिक विकल्परूपी भारसे हलका होता रहता हूँ, सहज ज्ञानघन स्वभावमे वृद्धि पाता रहता हूँ। सोनगढ़की चिन्मय, भव्य, दिव्यमूर्तिको अधिक समीप होकर गहन दृष्टिले देखता रहता हूँ।
आशा करता हूँ कि जुलाई माहके अन्त तक लगभग एक माहके