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अजमेर
२२-३-१९४९ आत्मार्थी प्रत्ये निहालचन्द्रका धर्मस्नेह ।
कार्ड आपका मिला, प्रतिष्ठा व विहार आदिके समाचार ज्ञात हुए।
जबसे आपका कार्ड आया है तबसे रोज कुछ जवाब लिखना है, ऐसा विकल्प होता है, परन्तु लेखनी नही बढ़ती, कारण क्या लिखू ऐसा कोई सहज विषय स्मरण नही होता ।...
___ "मै त्रिकाली सहज ज्ञानस्वभावी ध्रुव पदार्थ हूँ व प्रतिक्षण ज्ञानरूप परिणमन मेरा सहज स्वभाव है; जड़ आश्रित परिणाम जड़के है ।" - पूज्य गुरुदेवके इस सिद्धान्तकी छूटीने क्षणिक परिणामकी ओरके वलणके रसको फीका कर दिया है व सहज स्वके सिवाय कोई कार्यमे रस नहीं आता है, अतः जवाब आदि नहीं पहुंचनेमे व विलम्ब आदिके होनेमे मेरी ओरका ख़याल न करना।
उत्कृष्ट शुभ-दृष्टिकी अपेक्षा आपको महाराजश्रीके व्याख्यानोकी अनुकूलता है, परन्तु यहाँ तो अशुभ प्रतिकूलताएँ बहुत है। फिर भी "मुझे विश्वमे कोई भी पदार्थ अनुकूल है ना प्रतिकूल है" - इस सिद्धान्तको लेकर मै प्रतिकूलताओको भी अनुकूल ही समझता हूँ । कारण ऐसी अवस्थामे परिणाम केवल स्वसामर्थ्यका ही आश्रय लेते रहे, यही एक प्रयोजन रहता है व पर तरफ़ अधिक नही अटक पाते'।... ___ आत्मस्वास्थ्यमे उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे, यही अभिलाषा है; जो कि (यद्यपि) आत्मा तो अभी ही पूर्ण स्वस्थ्य और अभिलाषारहित है, परन्तु अपूर्ण परिणमनकी अपेक्षा ऐसा लिखा है।
आपका निहालचन्द्र
• पदार्थका सहज स्वभाव अविकृत होता है ।
- पूज्य गुरुदेव