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आसानीसे उनकी नब्ज़ (Pulse) हाथ नही आ रही थी । तत्काल शल्यक्रिया करनी पड़ी । यद्यपि शल्यक्रिया सफल रही तथापि कुशल डॉक्टरोंकी कई सप्ताहोकी यथोचित सार-सँभालसे उन्हें स्वास्थ्य लाभ संभव हो सका । परन्तु उनके परिणामोंमें किसी प्रकारकी विह्वलता या आकुलताकी गंध तक नही दिखलाई देती थी । उनके परिणाम पूर्ववत् ही अत्यन्त सहज, स्वस्थ व शांत रहे । मानो उन्हें सर्वाग समाधान वर्तता हो और आत्मप्रत्ययी सहज पुरुषार्थ ऐसे विकट क्षणोमे अत्यन्त वर्द्धमान हुआ हो परिणामतः पूर्व निबंधित शेष कर्मराशिने अपनी पराजय अंगीकार कर, उस बे-जोड़ पुरुषार्थीके लिए शीघ्र मोक्षगमनका मार्ग प्रशस्त कर दिया हो ।
उक्त घटनाने श्री सोगानीजीको विशेषरूपसे आत्मकेन्द्री बना दिया । अब तो वे यथाशीघ्र दायित्व बंधनसे विमुक्त होकर पूर्णतः मोक्षसाधनामें लीन हो जाना चाहते थे । उनकी ऐसी पूर्व भावित भावना अब विशेष बलवती हो गई । जिनधर्मके सत्स्वरूपके सम्बन्धमे उनका अनुभवज्ञान गहनसे गहनतर होता गया । सहजानंदसे बाहर झॉकना अब उनके लिए अग्निदाह-सा दुःखद हो गया । यात्राके अंतिम पड़ाव पर आत्मशांतिकी छाया उनके आसपास घनिभूत होने लगी ।
प्रतिक्षण वर्द्धमान होती उनकी आत्मपरिणतिको अब अनात्मभाव अत्यन्त बोझरूप लगते । वे भौतिक संसारकी उस सीमा तक पहुँच चुके थे जहाँसे उसपार छलांग लगाना संभव हो जाता है। अंतर चेतनाके सारे कक्ष यथोचित खुल चुके थे । मोक्षके महा द्वार पर दस्तक पड़ रही थी । देश-कालकी सीमाएँ टूटने लगी और वे पल, प्रति पल निर्वाणपथकी ओर अग्रसर होते रहे । कितु यह सब उनके भीतर घट रहा था। बाहरकी दिनचर्यामे कोई व्यतिक्रम नही था । पर्यायका कार्य पर्याय द्वारा सम्पादित हो रहा था ।
* मुक्तिदाताके अन्तिम दर्शन :
श्री सोगानीजी मानो अपने नश्वरशरीरसे बंधनमुक्ति पूर्व अपने मुक्ति