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[३२] यहाँ तक कहते कि:
"श्री सोगानी वैमानिक देवमें गये हैं, वहाँसे निकलकर मनुष्यभव प्राप्त कर झपट करेगे; और वे मेरे पहले मुक्ति में जायेंगे । और जब मै तीर्थकरभवमे /- चौथे भवमें) मुनिदीक्षाके समय सर्व सिद्धोंको नमस्कार काँगा तब मेरा नमस्कार उन्हे भी प्राप्त होगा।"
धन्य धन्य हैं ऐसे गुरु !! धन्य हैं ऐसे शिष्य !
वस्तुतः श्री निहालचन्द्रजी सोगानीकी जीवनगाथा साधनासे सिद्धि तक छलांग लगानेका वृत्त है । कर्मयोग और अध्यात्मयोगकी संभवित साधनाका यह एक अनुपम उदाहरण है । जीवनयात्रा यदि बाह्य जगत्प्रति हो तो उसको समझना और रेखांकित करना आसान है कितु वे तो अंतर्जगत्के यात्री थे । उनकी उपलब्धियोंका यथार्थ मूल्यांकन, उस दशाको संप्राप्त अथवा उस दशासंप्राप्तिमें संलग्न जीव ही कर सकता है, अन्य नही ।
प्रस्तुत ग्रंथमें संकलित अनेको गम्भीर आध्यात्मिक पत्र व सैकड़ो प्रश्नोत्तर, जिनधर्मके सम्बन्धमे श्री सोगानीजीके तलस्पर्शी व अनुभवमयी ज्ञानके प्रमाण है । उनके श्रीमुखसे व समर्थ लेखनीसे सत् दर्शन और मोक्षमार्गके सम्बन्धमें प्रकट होनेवाली सचोट वाणी ही उनकी थाती है। पुस्तकके रूपमे प्रकाशित उनकी प्रज्ञाका यह प्रकाश-स्तम्भ भावी पीढ़ीका मार्गदर्शन करता रहेगा, ऐसा विश्वास है।
सत्पुरुषोंका प्रत्यक्ष योग जयवंत वर्तो ! - त्रिकाल जयवंत वर्तो !
- संकलन व सम्पादन : दिनांक ८-८-१९९०
शशीकांत म. शेठ
भावनगर