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[२६] गुब्बारेको पूर्ण फुलाये बिना (- विकसित किये बिना) अब एक क्षण भी चैन नही है ! ध्यानस्थ अवस्थामे बैठा हुआ, अथाह ज्ञानसमुद्र व उसमे सहज केलि ! ऐसा अनुभव मानो 'मै ही मै हूँ', आनंदकी घूटे पिये जा रहा हूँ - अरे रे ! वृत्ति आनंदसे च्युत होने लगी । पर वाह रे पुरुषार्थ ! तूने साथ रही उग्रताका संकल्प किया, मानो अथाहकी थाह, सदैवके लिए एकबारमे ही पूरी ले लेगा । प्रदेश-प्रदेश व्यक्त कर देगा । सहज आनंदसे एक क्षण भी नही हटने देगा । पर अरे योग्यता ! तूने पूर्णताके संकल्पका साथ नही देकर अन्तमे च्युत करा ही तो दिया, तो फिर इसका दण्ड भी भुगतना पड़ेगा।"
- ( पत्रांक • १४; कलकत्ता / १-२-५४) * अनूठी कथन-पद्धति :
यद्यपि त्रिकालवर्ती सर्व ज्ञानियोकी तत्त्वप्ररूपणामे कही मतान्तर संभवित नहीं है, क्योकि ज्ञानी पदार्थ-दर्शनपूर्वक सिद्धांत निरूपित करते है; अतः सभीमे तत्त्व अविरोधरूपसे अक्षुण्ण रहता है । सभी आचार्यदेवोके वचनोके आलोडनसे यह सुप्रतीत होता है कि सूत्र बदलते है पर कही सिद्धांत नही बदलते । तथापि सर्व ज्ञानियोकी कथन-शैलीमे साम्य नही दिखता क्योकि प्रत्येककी शैलीमे अपनी मौलिकता वर्तती है।
वास्तविक स्थिति तो ऐसी है कि "त्रिकाली अस्तित्वमयी स्व, इस आश्रित परिणमी हुई आंशिक शुद्धवृत्ति व देवादिक प्रत्येकी आंशिक बाह्यवृत्ति - तीनो अंशोका एक ही समय धर्मीको अनुभव होता है।"ऐसे निर्बाध ज्ञानसे विशिष्ट आत्माको (-सम्यग्ज्ञानीको) प्रमाण कहते है । तथापि ज्ञानी धर्मात्मा विवक्षित विवक्षा हेतु कभी द्रव्यार्थिकनय व कभी पर्यायार्थिकनयकी मुख्यता-गौणताकी कथन-शैलीमे विषय प्रतिपादित करते है तो भी सिद्धांत तो त्रिकाल अबाधित ही रहते है।
श्री सोगानीजीकी द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतावाली शैली रही है; जो अनादि कालसे पर्यायमूढतावश अति जटिल व विकट पर्यायबुद्धिरूपी नाग-पाशके