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प्रतिबन्ध नहीं है । पू. गुरुदेव कहते है कि जो कुछ लाभ है सो तो यह वृत्ति ही है, अनन्त सुखोके पिण्डके साथ रहती है, फिर चिन्ता काहे की ? यह तो स्वयं स्वभावसे ही चिन्ता रहित है, निश्चिन्तवृत्तिमे चिन्तित वृत्तिका तो अत्यन्त अभाव है। हे भगवान! आपकी यह वाणी मस्तिष्कमें नित्य घूमती रहे, यह ही भावना है ।"
~ (पत्रांक : १५; कलकत्ता / २५ -६-५४ ) "" प्रदेश-प्रदेशे मै मात्र चैतन्य - चैतन्य व आनन्द ही आनन्दसे ओतप्रोत वस्तु हूँ । स्वरूपरचना पर्यायमे स्वतः ही हुए जा रही है । इच्छा तोहूँ, स्वरूपकी वृद्धि करूँ आदि विकल्पोका जिस सहज स्वभावमें सहज ही अभाव है । अरे ! सहज शुद्ध पर्यायका भी जिस त्रिकाली ध्रुव वस्तुमे सहज ही अभाव है, ऐसी नित्य वस्तु मै हूँ, त्रिकाली परिपूर्ण हूँ ।" ( पत्रांक : १७; कलकत्ता / २५-७-५४ ) "परिणतिको आत्मा ही निमित्त होवे अथवा भगवान... भगवानकी गुंजार करते आप ( - श्री कहानजी स्वामी ); अन्य संग नही; यह ही भावना ।"
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- ( पत्रांक : २६; कलकत्ता / १६-१२-६१ ) " विकल्पोंको तो धधकती हुई भट्ठीके योगोका निमित्त है व इस मध्ये ही रहना हो रहा है, जबकि चैतन्यमूर्ति विकल्पोंको छूनेवाली भी नही; अधूरी दशाके विकल्पांशोमे श्रद्धामे जमी हुई इस मूर्तिका एकरस आलिंगन कहाँ !"
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( पत्रांक : २९; कलकत्ता / ३-९-६२ )
"वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ। वर्तमानसे ही देवादिक पर अथवा उन आश्रित रागसे किंचित् मात्र लाभका कारण नहीं । लाभ मानना ही अलाभ है ।"
- ( पत्रांक : ३०; कलकत्ता / ८-११-६२ ) यों श्री सोगानीजीके व्यक्तित्वमें एक और निश्चयप्रधानताकी विस्मयकारी शैली व दूसरी ओर गुरुभक्ति व निमित्तका यथार्थ मूल्यांकनका