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[२१] अत्यन्त सुन्दर व स्वाभाविक सन्तुलन तैरता है; जो आत्मार्थियोंके लिए सतही तौर पर विरोधाभास दिखनेवाले ऐसे अभिप्रायमे अंतर्निहित परिणामकी अविनाभावी व सहज यथार्थ दिशारूप पहलूके रहस्यको समझनेमे अत्यन्त सार्थक निमित्त है । यो वीतरागमार्गके पथिक ही भक्ति व गुरु-महिमाके आवरणमें छिपे निजरसको यथार्थतः संवेदित करते है। * गुरुभक्ति : .
यद्यपि श्री सोगानीजीने निरपवादरूपसे स्वतत्त्वकी सर्वोच्चता व एकमात्र उसीके अवलम्बनको मुक्तिमार्गकेरूपमे सर्वत्र गाया है; तथापि जिन श्रीगुरुके निमित्तसे उन्होने अनादि संसारके एकच्छत्री सरदार दर्शनमोहको परास्त कर, मोक्षमार्गके प्रथम सोपानको पाया है। उनके अनहद उपकारके मूल्यांकनवश साधकके हृदयमें किस असाधारण सर्पिणता, भक्ति, महिमा, विरह-वेदन स्पंदित व संवेदित होती रहती है उसका विस्मित-सा कर देनेवाला जीवन्त उदाहरण भी उन्हीके पत्रोमे सुस्पष्ट मिलता है । यथा :
- "वहाँ (- सोनगढ़ )की धूलके लिए भी तड़पना पड़ता है। गुरुदेवके दृष्टांत अनुसार भभकती भट्ठीमे गिरनेका-सा प्रत्यक्ष अनुभव यहाँ एक दिनमें ही मालूम होने लग गया है । धन्य है वहॉके सर्व मुमुक्षु, जिनको सत्पुरुषका निरन्तर संयोग प्राप्त है ।" ।
- ( पत्रांक : ६; अजमेर | १८-४-५३ ) - "हे गुरुदेव ! आपकी वाणीका स्पर्श होते ही मानो विश्वकी उत्तमोत्तम वस्तुकी प्राप्ति हो गई। क्या मै मुक्त होनेवाला हूँ! अरे ! शास्त्रोमे जिस मुक्तिकी इतनी महिमा बखानी है, उसे आपके शब्द मात्रने इतना सरल कर दिया !"
- ( पत्रांक : १७; कलकत्ता / २५-७-५४) "भरतखण्डका अलौकिक कर्ता-कर्म अधिकार, आत्मरससे ओतप्रोत वक्ता, साधक मुमुक्षुगण श्रोता, जिनालयकी सामूहिक भक्ति, निरन्तर अमृतवाणीसे संस्कारित-तृप्त भूमिस्थान आदि समवसरण-से दृश्य