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उनकी आत्मपरिणति स्वस्वरूपमे उग्रतासे जमी रहती, निरन्तर स्वरूपरस प्रगाढ होता रहता और स्वरूपघोलन व उसकी धुन अनवरत चलती रहती थी। तादृश उनके मन-वचन-काय योग भी इतने उपशमित थे कि जिससे वे जनसमुदायमे भी किसी पैनी नजरवालेके द्वारा सहज पहचाननेमे आ सकते थे। ___ उदाहरणार्थ : बम्बईमे एकबार वे एक मुमुक्षुके यहाँ भोजन करने गये, वहाँ अन्य लोग भी आमंत्रित थे; जब भोजनके पश्चात् सभी चले गये तब उसके वयोवृद्ध रसोईयाने उत्सुकतावश पूछा कि वे एक नये व्यक्ति कौन थे ? उस मुमुक्षुने इस प्रश्नका कारण जानना चाहा तो रसोईयाने कहा कि अपनी ज़िदगीमे मैने अपने हाथो हजारो लोगोको जिमाया है परन्तु आज पहली बार एक प्रतिमाको जिमाया है । वह 'प्रतिमा' श्री सोगानीजी थे। ___यद्यपि वे बाह्यमे खाने-पीने-बोलने-चलने आदिकी प्रवृत्तियोमे दिखलाई देते, तथापि उनके गाढ अन्तरंग परिचितोको ऐसा स्पष्ट ख़याल आता कि उनकी आत्मपरिणति अन्तरमे अति आश्चर्यकारी रूपमे जमी हुई है। ___ अपने निवास स्थानमे भी उन्हे अपनी शारीरिक आवश्यकताओंका ख़याल तक नही रहता था । अपने वस्त्रो आदिका भी उन्हे पता नही रहता था । घरमे क्या है और क्या नही, इसकी जानकारी उन्हे नही रहती थी। जो आमदनीकी रकम उनको मिलती वे उसे अपनी धर्मपत्नीको सौप देते। ___उन्हे स्वरूपध्यान-घोलनकी मुख्यता वर्तती थी और अन्य सबकी गौणता; फिर वह चाहे भोजन हो या व्यवसाय या फिर कुछ अन्य । वे अपने कमरेसे बाहर कब निकलेगे या कमरेमे कब चले जायेगे या किस समय व्यावसायिक प्रवृत्तिहेतु बाजार जायेगे, कुछ निश्चित नही था।
उन्हें अपनी पसंदीदा भोजन-सामग्री कुछ न थी; क्या खाया और कैसा था, कुछ भान नहीं रहता था । कभी तो ऐसा भी होता कि वे भोजन