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[२२] पुण्यहीनको नही सम्भवते, अतः वियोग है।"
- (पत्रांक : २४, कलकत्ता / १९-१०-६१) D"शुभयोगमे भी थकान अनुभव करनेवाले जीवके लौकिक योगकी तीव्र दुःख दशा पर...हे करुणासिधु ! करुणा करो...करुणा करो, यह ही विनती"
- (पत्रांक : २४; कलकत्ता / १९-१०-६१ ) 1 "सतत दृष्टिधारा बरसाते, अखण्ड चैतन्यके प्रदेश-प्रदेश सहज महान् दीपोत्सवकी क्षणे-क्षणे वृद्धि करते श्री गुरुदेवको अत्यन्त भक्तिभावे नमस्कार !"
- ( पत्रांक : २५; कलकत्ता | १-११-६१) D"दरिद्रीको चक्रवर्तीयनेकी कल्पना नहीं होती। पामरदशावालेको 'भगवान हूँ...भगवान हूँ'की रटन लगाना, हे प्रभो! आप जैसे असाधारण निमित्तका ही कार्य है।"
-(पत्रांक : २६; कलकत्ता / १६-१२-६१) 0"अतः तीर्थकरसे भी अधिक सत्पुरुषका योग प्राप्त हुआ है, जिनकी नित्य प्रेरणा उधरसे विमुख कराकर स्वयंके नित्य भण्डारकी ओर लक्ष्य कराती रहती है; यहाँ से ही पूज्य गुरुदेवके न्याय अनुभव सिद्ध होकर दृढता प्राप्त कराते है।"
- (पत्रांक : ४४; कलकत्ता / १०-९-६३) * अध्यात्म-दशा :
यद्यपि विकल्पात्मक वृत्तियोका तो सहज ही अनुमान कर लिया जाता है परन्तु निर्विकल्पताका माप तो बाह्यसे नही किया सकता है, वह तो स्वयंके अनुभवका विषय है। और अनुभव लेखनीमे व्यक्त करना अशक्य होता है तथापि श्री सोगानीजीने अपनी प्रवर्तती अध्यात्मदशाको अनुपम पद्धतिसे यकिंचित् इंगित किया है। उनकी अंतर्दशाके परिचयार्थ उनके पत्री व अन्य प्रमाको सूक्ष्मतासे निरीक्षण करे तो उसकी प्रतीति सहज ही हो जाती है।