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[१८] जानता है ?" उनका यह प्रत्युत्तर उनके वर्तते निग्न अभिप्रायके अनुरूप ही था । यथा :
"फूल बागमें हो या जंगलमें, उसको कोई सूंघो या न घो, उसकी कीमत तो स्वयंसे है। कोई सूंघे तो उसकी कीमत बढ़ नही जाती अथवा नही सूंघे तो वह मुरझा नहीं जाता । इसी तरहसे कोई अपनेको जाने या न जाने उससे अपना मूल्य थोड़ा ही है ! अपना मूल्य तो अपनेसे ही है । कोई मान-सम्मान देवे, न देवे - सब धूल ही धूल है, उसमें कुछ नही है।" * निस्पृहताः
श्री सोगानीजी जिस कपड़ा मिलकी एजेन्सीका व्यवसाय करते थे उस मिलके मालिकको एकबार जब उनके धर्म-प्रेम व योग्यताका पता चला तो उन्होने कौतूहलवश उनको जब तब अपने घर आकर धर्म समझानेको कहा । परन्तु उन्होंने उनमे वास्तविक धर्म-जिज्ञासाका अभाव तथा कौतूहलता देखकर, समयाभावके बहाने उनके उक्त प्रस्तावको टाल दिया । श्री सोगानीजीके मनमें तो ( बादमें उन्हीके बतलाए अनुसार) यों विचार आया कि : यह तो सांसारिक आवश्यकता पूर्ति हेतु उनके पास आनेकी विवशता है; अन्यथा ऐसे कार्योके लिए आत्मार्थीके पास समय ही कहाँ ? जहाँ ऐसी परिस्थितिमे सामान्य लौकिक जन जिनसे अपने अर्थ-प्रयोजनकी सिद्धिकी अपेक्षा रहती है वे उनके अनुरूप वर्तन करते है; वही श्री सोगानीजीका उक्त प्रकारका वर्तन उनकी निस्पृहवृत्तिको उजागर करता है। • तत्त्व-प्रेम :
तत्व-प्रेमी जिज्ञासुओंके प्रति ,श्री सोगानीजी इतने करुणावन्त थे कि व्यावसायिक व निजी प्रवृत्तियोंके बीच भी समय, स्थान आदि सब बातोंको गौण कर उनकी जिज्ञासाओंका समाधान कर दिया करते थे। कई बार